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________________ २७६ अध्यात्म बारहखड़ी सिद्धकल्प तू जगतनाथा, तू हि सिद्धि संकल्प है, तू प्रसिद्ध अविमद सिद्धा. सिद्धिमूल अविकल्प है॥७१ ।। सिद्धि सिला को नाथ, नाथ तू है त्रिभुवन को, देहु देहु निज सेव, अंत दै प्रभु भव वन कौ। सिक्ता सम भवभूति, सो न चाहें निज दासा, चाहैं केवल भक्ति, रावरी अचल प्रकासा। सित तै सित अति अमल भावा, स्त्रिष्टि सकल तुव ज्ञान मैं, स्त्रिष्टि नाथ तू, स्त्रिष्टि भासक, प्रतिभासै निज ध्यान मैं।। ७२ ॥ स्त्रिष्टि अनंत स्वभाव, शुद्ध पर्याय अनंता, स्त्रिष्टि अनंत सुज्ञान, आदि गुन अतुल धरता। स्त्रिष्टि न इनसी और, एक रूपा अविनासी, स्त्रष्टा तू जगदीस, ईस तू सर्वविभासी। स्वपर स्त्रिष्टि को तू अधीसा, भिन्न अभिन्न सुव्यापको, सिषी भव्य अति हरष पांच, तू सुमेघ धुनि लाप को॥७३॥ गयो सिटाय जु मोह, धाक सुनि तेरी देवा, दासनि सौं लर” हि, सिट पटावत अति भेवा। तैं हि सिखाये दास, ज्ञान किरियामय निपुना, अति हि सिहां, धीर, तोहि तैं लखि तत अपुना। नाहि सिहावै जगत छति लखि, गर्ने लोक माया असति, तो ही कौं सिर ऊपर धरि, निश्चिंता मुनिवर लसति॥७४ ।। - दोहा - सिर परि सबक तू रहै, विरला तोहि लखंत। तेहि सिधाएँ सिव पुरै, ज्ञानामृत चखंत ।।७५ ।। - कुंडलिया छंद - हैं स्वीकारे मुनि गना, लोक रीति से भिन्न, तू स्वीकारयो मुनिगननि, तत्व स्वरूप अभित्र।
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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