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अध्यात्म बारहखड़ी
छेदन भेदन मार अति, रोग अनंत अपार । अति चिंता वहु वेदना, कहत न आवै
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नांहि
असुर जनित तीजा लगें, आगे वढतौ नारकभूमि कूभूमि मैं दीखै हिंसा मृषा अदत्त धन, अर परदारा संग | अति त्रिश्वा, आरंभ अति सपत विसन परसंग ॥ ६४ ॥
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पार ॥ ६२ ॥
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द्युत मांस मदिरा बहुरि वेस्या अर आखेट । चोरी नारी पार की इन करि दुरगति भेट ॥ ६५ ॥
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दुख्य ।
सुख्य ॥ ६३ ॥
छंद बेसरी
अभरख अहारी, पर अनहारी, करहि अगम्या गम्य विकारी | स्वामि द्रोही मित्र द्रोही, बहुरि कृतघ्नी धरमद्रोही ॥ ६६ ॥ जे विस्वास घातका दुष्टा, नरक परें पापिष्ट स्पष्टा । विषदाता दवदाता पापी, मित्र निहंता परम सतापी ॥ ६७ ॥ बालघातका वृद्ध निपाती, अध परिणांमी निरदय छाती । सप्तम नरक लगे ए जावें, अगणित काल अतुल दुख पांवें ॥ ६८ ॥ पशुघाती दुरवल नरघाती, नरक परै सठ धर्म निपाती । निहकारण वैरी दुखदाई, पिशुन कुजन नरकांपुर जाई ॥ ६९ ॥ नर्क न पांवें तेरे दासा, सुर्ग हु चाहैं नांहि उदासा । चाहें केवल तेरी भक्ती, सुर्ग मुक्ति की मात प्रव्यक्ती ॥ ७० ॥
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छप्पय
सिद्धारथ तू सिद्ध, सिद्ध सासन तू देवा,
तू सिद्धांत निबंध, देहु स्वामी निज सेवा । सिद्धि ऋद्धि दातार, सिद्ध ही जांनें तोकौँ,
अतिसित भक्ति प्रभाव, देहु तू जिनवर मोकौं ।
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