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अध्यात्म बारहखड़ी
सायं प्रात भजें तुझै, भजें दुपहरि मांहि । अर्द्ध रात्रि ह भवि भ6, यामैं संसै नाहि ।।५० ।। नित्य भलै अहनिसि भ®, लग्यौ तोहि सों चित्त। तो सौ और न देखिये, तीन लोक मैं वित्त ।। ५१ ।। साधर्मी तेई महा, जे तोसौं लवलीन। तो सौं जे विमुखा नरा, ते हि विधर्मी हीन ।। ५२ ।। तू साकार स्वरूप है, निराकार हू तू हि। नराकार सव रूप तू, लोक प्रमाण प्रभू हि ॥५३॥ साकृति और निराली, प्यागी -- शुनिस्सार। ... साची चरचा रावरी, तो विनु सर्व असार ।।५४ ।। सानंदी सद्रूप तू, सालोको अतिलोक। सामीप्यो अति निकट तू, गुन अनंत को थोक ॥५५ ।। सारूपो निजरूप तु, ज्ञानरूप अतिरूप। तू सायोज्य सुमिलित है, गुन अभिन्न चिद्रूप॥५६ ।। सारिष्टो अति ऋद्धि तू, स्व रस रसीलों देव। अति साम्राज्य धुरंधरो, है साम्राट अछेव ।। ५७ ॥ सात नरक अति दुख मई, तो भजियां नहि पाय। नरकांतक तू देव है, सकल त्रिलोकी राय ।। ५८ ।। नरकनि के दुख अकथ हैं, कहत न आवै थाह। देह जनित मन जनित औं, क्षेत्रोतपन्न अथाह ।। ५९ ॥ असुरोदीरित अति दुखा, वहुरि परसपर कष्ट। इनहि आदि अगणित दुखा, नारक मांहि सपष्ट ।। ६० ।। भूख अतुल तिरषा अतुल, मिलै न कण इक अन्न । बूंद मात्र वारि न मिले, है नारक अति खिन्न ।।६१ ॥