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अध्यात्म बारहखड़ी
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भुजंगी प्रयात छंद
कभी नांहि आलिप्त तू है अलेपा, चिदानंद चैतन्यरूपा अछेपा । तू आनंद रूपी सदानंद देवा, प्रभू है महानंद मूला अछेवा ॥ १५९ ॥ तु आनंद रामा प्रभा पुंज धारै, महा आधि व्याधी प्रभू तू प्रहारे । सु आराम करी प्रभू राम तू ही, गरीबांस आद्य गुरु है प्रभु हो ।। १६० ।। समाधान रूपा सुभावा सुआली, सुचिच्छक्ति रूपा सुरांनी अटाली । नहीं और रांनी नही और आली, विराजै तु ही एक रूपो अकाली ।। १६१ ॥
न आदी न अंता तु ही नादि वस्तु, सुअस्तित्व रूपा सही है प्रसस्त । नही आसना वासना नांहि तोमैं, हरौ आगसा लागिया नाथ मोमैं॥ १६२ ॥ कहें आगसा नांम जे पापकर्मा, न तेरै जु पापा नाही कोई भर्मा । भजैं योगरूढ़ा द्रिहासत्र धारे, समाधी सुरूपा महाभाव भारे ॥ १६३॥ तु ही आदरा और त्यागे सर्वेही, मुन्यौं नैं सर्वै सिद्धि पाई जवै ही । तुझे छांडि जे मूढ से विषै कौं, महा आतताई लहैं नांहि जै कौं ॥ १६४ ॥ नही कोई आवेस तेरे प्रवेसा, तु ही हैं अनादेस योगी अभेसा । प्रभू आदि व्यक्ता तु ही आदि वक्ता, तु ही आदि सांमी महाभूति भुक्ता ॥ १६५ ॥ गीता छंद.
निरंजनं ।
प्रपूरणं ।। १६६ ।।
आश्चर्यकारी लोकतारी आप आप आलोकपारी अतुलभारी, आस दास आदि आचारी युगादी आदि आसेव्यो महा । आचूल मूल अतूल स्वांमी अकथरूप कहें कहा ॥ १६७ ॥ आत्मीय भाव स्वभाव रूपा योग आध्यातम तुही । आधारभूत अभूत भूपा आदि धरमी तू सही ॥ १६८ ॥ आजि धन्य सुधन्य भागा, आसथा तेरी गही । आरक्तता पर भाव केरी, हरी देव भैहर तुही ॥ १६९ ॥ अस्ति नास्ति सवै जु भाएँ, आदि सासत योगत्वं । आक्रांत नांहि जु काल तैं तू न आक्रमण सुयोगित्वं ॥ १७० ॥