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अध्यात्म बारहखड़ी
आलापैं हरि रागा, तेरे जस का करेंहिं आकुल भाव न लागा, तोकौं तू देव आश्रव आश्रम भिन्ना, नहि आवासाहु कोइ प्रभु तेरे । तू निज आतम लिन्ना, आश्रय नहि तो विना मेरे ॥ १४७ ॥
वाखांना ।
भगवाना ॥ १४६ ॥
अनल वुझावै अंभा, आसानल नां वुझावई पाथा । तृष्ण दाह विज्रभा, तू ही मेटै
महानाथा ।। १४८ ॥
तू आधीन न होई, ए सव तेरे हि लोक आतम गुणमय सोई, आरोज़ा तू हि आतापन जोगा जैं, धारें तौहू न तो विनां पांवैं शिव जोगा जे, तोही तैं योगिया हैं आरोज्ञ सरीरा, तेरे नांमैं कहि भव रोगा । आसेव्या असरोरा, तेरे माया न संयोगा ।। १५१ ।। आद्र नाम रस भीनां तू भीगा सुरस मांहि रस भोगी ।
क्रांती।
शांती ॥ १५३ ॥
अन न तो विनु लीनां आरूढा हैं भजैं जोगी ॥ १५२ ॥ आदित्यादि असंख्या, देवा पांवें न तो समा आभ्यन्तर आकंष्या, मेटि हमारी हुदै आखेटक करमी जे, मारें जीवा करें हि पन भक्षा । हिंसक अघ करमी जे पावैं पापी न तब पक्षा ॥ ९५४ ॥ भक्ति न पांवें दुष्टा, शिष्टा पांवें हि रावरी तू करुणा रस पुष्टा, थिरचर प्रतिपाल आकासो जड़भावा, कैसें पावै जु ऊपमा तृ चिद्रूप स्वभावा, देवा हरि मूढ़ता आदेसा इह तेरा, जीवा सव आप तुल्य करि जांनौं । परधन पाहून ढेरा, पर नारी मात सम मांनीं ॥ १५७ ॥
आधीना । स्वाधीना ॥ १४९ ॥
सिद्धी ।
ऋद्धी ॥ १५० ॥
भक्ती ।
अतिशक्ती ॥ १५५ ॥
आभासा तेरी सी, नहि पावैं तीन लोक मैं दुरबुद्धि मेरी सी, नहि कोई मांहि प्रभु
तेरी ।
मेरी ॥ १५६ ॥
कोई ।
होई ॥ १५८ ॥