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अध्यात्म यारहखड़ी
निज मूरति विनु टांकी टांची, ज्ञानानंद स्वरूप जु सांची । पुरषाकार निराकारा जो, अघटित घाट निराधारा जो।।१०।। ताके पायवे हि भवि जीवा, मूरति टांची घडित सदीवा। पूजे तेरी सूत्र प्रवाम्म, कम और अकर्तृम मानें ।।११।। टांच टींच देवल की दासा, सौ रावें करि भगति प्रकासा। पूजा दोन गृहस्थ जु धरमा, मुनि के दरसन मात्र हि परमा ।। १२ ।। त्यागि टापरा पाप जु भारा, हस्ती स्पंदन पाय कटारा। टांक मात्र परिग्रह नहिं राखें, मुनि तोकौं लखि अमृत चाच॥ १३।। टाटी मोह जु माया रूपा, दरसन कौं आडी जु विरूपा। तोरै एकहि टल्ला सेती, त्यागें जड परणति हैं जेती॥ १४ ॥ टिकैं निजातम भावनि मांही, तेरे दास जु संसय नाही। बिना टिकांनी सकट न चालें, भगति विनां व्रत ज्ञान न पाले।। १५ ।। दिक्यो न हूं कबहू तन मांही, ए सन यों ही उपजै जाही। टिकौं अनंतानंत जु काला, कवहु टरौं नहि होइ अकाला॥१६॥ टिक्यो रहूं अनुभव रस माही, इहै भगति फल संसं नाही। टिकैं न तोर्षे कर्म अनंता, हमसौं टिरे टारि भगवंता ।।१७।। टीपटाप जग की सहु झूठी, इन मुनि की वृत्ति अपूठी। टीपटाप विनु तू अति सोहै, देव दिगंबर जन मन मोहै ॥१८॥ टीको त्रिभुवन को जु ललाटा, तेर सोहै तू अति ठाटा। टीकायत सव मांहूँ तू ही, नई नई टीपै न समूही॥१९॥ टीपै द्वय नय एक स्वरूपा, श्रुति अनादि रूपी हि निरूषा नहीं टिपिवौ नौतन तेरे, नित्यानित्य कथन तू प्रेरै ।। २० ।। टीप करावें टींच सुधारें, तुव मंदिर की तेजस धारै । जीरण मंदिर मरमति जेई, करवावें ते अतिसुख लेई ।। २१ ।। नौतम मंदिर रचैं तिहारा, प्रतिमा पधरावें गुनभारा। उपकरणा मंदिर में स्वामी, जेहि चदां हाँहि सुधांमी ।। २२ ।।