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अध्यात्म बारहखड़ी.::. .. ...
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अहिप कहिये वृक्ष कौं, अदभुत तरू सुखदाय। तो सम सुरतरु और नहि, अति अनंत फल छाय ॥५॥ अंशु किरण को नाम है, किरण अनंत जु धार। तू अनंत दुति देव है, भानुपति अविकार ।। ६ ।। अंशुक कहिये वस्त्र कौं, तू हि दिगंबर देव। पीताबर पूजित तु ही, निराभर्ण अति भेव ॥ ७॥ अंतर तेरै कछु नहीं, नित्य निरंतर ईस। अंतर बाहिर एक रस, अति रसिया अवनीस॥८॥ अंतर उर मेरै सदा, वसि जगजीवन नाथ । अंतर मेटि दयाल तू, देहु आपुनौं साथ ॥९॥ अंदर उर के आयकैं, हरौ कुबुद्धि अपार । 4 स्वभक्ति भव तारि तू, निरधारां आधार ।। १० ।।
- मालिनी छंद - यतिपति सु चंद को, अंक जाकै न कोई। जग प्रभु जु अवंको, वक्रता नाहि होई। जग जित जु अपंको, शंक लेसो न जामैं । भजहु भजहु भव्या, नाहि रागादि तामैं ।।११।। प्रभु तजि जग मैं जे, राचिया मूढ जीवा। नहि लहहि शिव ते, जन्म धारै अतीवा । हरि भजि जग जीते, ते लहे स्वात्म तत्वा। जिन सम नहि कोऊ, और दूजो सुसत्वा ॥१२ ।। प्रभु भजिहि सुभाजै, अंधको मोह नांमा। प्रभु भजहि सभागा, त्यागि संसार रामा। प्रभु तजहि अभागा, तेहि अंधा न और। प्रभु सम नहि कोई, वीर बैठौ जु चौरै ।।१३।।