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अध्यात्म बारहखड़ी
- इंद्रबज्रा छंद - अंभोज तेरे चरणारविंदा, सेबैं नरिंदा अमरिंद चंदा। हरै संतापा प्रभु तू हि अंभा, धरै सुधामा नहि कोई दंभा ॥१४॥ अंभोधि तू ही गुन रत्न धारा, अंभोद तू ही वरष सुधारा। ज्ञानामृतांभो रस धार वृष्टी, तो वाहिरा धर्म मई न स्त्रिष्टी ।। १५ ।। नाही जु अंभोनिधि और दूजो, तू ही गुनांभोधि विभू प्रभू जो। नाही जु अंत:पुर तू हि एको, शुद्धत्व शक्ती परमो विवेको ।। १६॥ अंसा विभागा गन भाव रूपा, अत्यंत तेरै परम स्वरूपा। अंसी जु तू ही अति अंसधारी, अंतो न तेरो कबहू विहारी ।। १७11
- छंद वेसरो - अंजन रहित निरंजन देवा, अंतर रहित देहु निज सेवा । अंजन धोय निरंजन कीनें, वहुत भक्त तारे रस भीनें ॥१८॥ अंध अंधता धारक प्रांनी, किये सचक्षु दास करि जानी। इहै अंधता तोहि न देखें, अंध तेहि तोकौं नहि पेखै॥१९॥ अंबुज घरन तिहारे से₹, तेहि सचक्षु तोहि प्रभु लेवें। अंतक कहिये काल गुसांई, तू अंतक को अंत जु सांई॥२० ।। अंत न आदि न तेरी कोई, तू अनादि अनिधन प्रभु होई। अंतरभेदी अंतरजांमी, अंतरवेदी अंतर स्वामी॥२१॥ अंतरातम तोहि जु ध्यावै, बहिरातम तुव भेद न पांचैं। अंतरनाथ अंतरनाथा, अंतर मेटि देहु निज साथा ॥२२॥ अंतराय हरि विधन निवारा, करि जु निरंतराय भवतारा। अंतरंग दै भाव सुभक्ती, वहिरंगा बुधि मेटि अयुक्ती ।। २३ ।। अंतरमुख मोकौं करि देवा, जनमि जनमि दै अपनी सेवा। अंतरआतम करि जगनाथा, बहिरातमता मेटि अनाथा॥२४ ।। अंबुधि अमृत रस कौ तू ही, अंवुद जित ध्वनि करन प्रभू ही। . अंवर रहित निरंवर देवा, मुनि दिगंवर धारै सेवा ॥२५॥