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अध्यात्म बारहखड़ी
औचित्यादी, अति गुण भरौ, औपशांती तु ही जो। औदैको जो, रहहि न नर्षे तू न कर्मी वही जो। तैर स्वामी, रहहि न सही औपशांती हु भावा । नाही तर, क्षय उपशमा, तू हि शुद्ध स्वभावा ॥८॥ तेरे नाथा, निज गुण मयो, ज्ञायको शुद्धभावो। पैए तेरै, प्रकृति रहितो, पारिणामो स्वभावो। औदारीकादि तन सबै नाहि, तेरै प्रभू जी। अप्राकृतो, सतचितमयो, तू विदेहो विभूजी ॥९॥
- गीता छंद - औदईको औपशांती, नाहि क्षय उपशम कभू। क्षायको प्रकृत्यक्ष यो जो, पारिणांमीक है प्रभू ।। १० ।। राग दोषा मोहभाषा, ए जु औपाधिक सही। तू न औपाधी कदापी, है उदापी गुर कहीं ॥११॥ रमा न औपाधी तिहारी, स्वाभाविक परपति सही।
गौरी सुलच्छि स्यामा जु शक्ती सोइ दौलति हू कही ।। १२॥ इति औकार कथनं संपूर्ण । आगै अं का व्याख्यान कर है।
- थोक - अंकारं परम देवं, शिवं शुद्धं सनातनं । योगिनं भोगिनं नाथं, वंदे लोकेश्वरं विभु ।।१।।
- दोहा - अं कहिये आगम विषै, परब्रह्म को नाम। परब्रह्म परमातमा, तुम ही देव सुधांम ॥२॥ अंक नांव है चिन्ह कौ, तेरै चिन्ह न कोय। ज्ञानानंद जु चिन्ह है, तू चिद्रूप जु होय ।। ३ ।। अंक नाम अक्षर सही, तू अक्षर अविनासि। अंहि चरन को नाम है, से0 सुर नर रासि ॥ ४ ॥