________________
अध्यात्म बारहखड़ी
ओषद अन अभै महा, ज्ञान दांन ए च्यारि। इनकै गर्भित दान बहु, भासक तू भव तारि ॥१३॥ ओज नाम पंडित कहैं, विक्रम को हूँ ईस । तोसौ और पराक्रमी, नांहि जु कोई अधीश॥१४॥ ओस विदु सम जग विभव, सो नहि संपति कोय।
शक्ति रावरी संपदा, सोई दौलति होय।।१५।। इति ओकार संपूर्ण। आज औंकार का व्याख्यान करै है।
- भोक - औकाराक्षर कर्तारं, ज्ञानानंदैक लक्षणं। सर्वज्ञं सुगतं शुद्धं बुद्धं वंदे जगत्प्रियं॥१॥
- चौपड़ी - औ कहिये ग्रंथनि कै मांहि, नाम अनंत जु संसय नांहि। तुम ही देव अनंत सुज्ञान, एक अनंत तु ही भगवान ।। २ ।। औपासक श्रुति भासै तू हि, तू न उपासक देव प्रभू हिं। औदासीन्य स्वभाव सुधार, अति आनंद मई विसतार ।।३।। औषद रूप तु ही जगदेव, हरै व्याधि जर मरण अछेव। औषधीश है चन्द्र सुनाम, चंद सूर ध्याबैं तू हि राम ॥ ४ ।। औपाधिक नहि तोमैं भाव, औत्कंठिक एको न विभाव । लगे भाव औपाधिक मोहि, हरौ देव नहि कठिन जु तोहि ।। ५॥
औदार्यादि गुणा तो मांहि, ज्ञान महानिधि देहु न कांहि। प्रभु अनौपम्यो इक तू हि, सर्व उपमा योज्ञ समूहि॥६॥
- मंदाक्रांता छंद - औत्सुक्यादी तव नहि कभी, तू अनौत्सुक्य रूपो। औद्धत्यादी कछुहु न कभू, शांत रूपो अनूपो। औपाधी जे, लहहि न तौं, श्री गुरै यों कही जो। औदार्यादी गुण धर नरा, तोहि ध्यांवें सही जो॥७॥