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क
ओकारं परमं देवं सर्वजं सर्वदर्शिनं । नाथं सुगंधि नाथानां वंदे लोकेश्वरं विभुं ॥ १ ॥
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दोहा
ओ कहिये आगम विषे
ब्रह्मा को है
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हरी, और न दूजौ
ओज
पूंज
तू हि जु ब्रह्मा हर ओजस्वी अति तेजमय, तू है ओज नांम है तेज कौ, तेज ओक नांम घर को सही, तेरै घर लोकालोक विषै तुही, ओक तिहारी ज्ञान है,
निज क्षेत्रो
सर्व ज्ञेय हू ओक हैं, व्यवहारें जु
अध्यात्म बारहखड़ी
ओक तिहारै सर्व ही, ओक तिहारी लोक के
सबके तुम ही मांधे हैं गुन
तू
नहि
व्यापि रहयो विनु
नाम ।
रांम ॥ २ ॥
स्वरूप ।
भूप ॥ ३ ॥
देह |
नेह ॥ ४ ॥
चिद्रूप ।
प्ररूप ॥ ५॥
ओक ।
थोक ॥ ६ ॥
फेरि ।
जैसें सिकला
अघ
ओप चढावै ओपनी, ओप चढ़ावै जीव कौं, तैसें तू ओज अनंत अपार धर, ओजस्वी तोसौ न। दूजो है संसार मैं, प्रभु अति सठ मोसौ न ॥८॥
ओष्ठ कहांवें ओठ ए तोहि न जपें तातैं अधर कहांवही, जपिवौ तोहि
घेरि ॥ ७ ॥
अयांन। सयांन ॥ ९ ॥
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ओठ न हालै कर फिरै मन फेरा मिटि जाहि । अजपा जप करि धीर धी, तो हि लहै सुखदाय ॥ १० ॥ ओहडि राख्यौ मोहि प्रभु, कर्म मिले जु वलिष्ट । तू ही छुड़ावै वंद्यतैं, तो सम और न इष्ट ॥ ११ ॥ ओहडियो मन पौंन कौं, तू हि बतावें ओहडि राखे ज्ञान में लोक अलोक
देव ।
अछेव ॥ १२ ॥