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अध्यात्म बारहखड़ी
– मंदाक्रांत। छंद - ऐरावंतो गजपति महा इंद्र कै होय नामी,
ताको स्वामी सुरपति सदा तोहि पूजै सुधांमी । इंद्राधीशो जिनपति तु ही मोक्ष मूलो अनांमी,
नामी तू ही प्रगट पुर सो सर्व स्वामी अकांमी ॥१२॥ तेरे दासा सुरपति दसा, नांहि चाह प्रभूजी,
ऐरावंतादिक गज घटा नांहि वांछै विभूजी । दासा तोकौं द्रिढ मन चहैं, पाय से स्वभूजी,
निःकामा जे जग नहि रूलें, पांवइ शुद्ध भू जी ॥१३॥ कर्मा भर्मा दहति सुजनो नाथ तोर्को जु ध्यावे,
पावै तोकौं तुत्र पद रतो, विरक्तो जु भावै। नागेंद्रो जो, तुव तजि कभी और कौं नाहि गावे, जिह्वानेका, करि तुव भजै, एक तोहि रिझावै॥१४॥
- सोरटा - ऐरावतपति इंद, तोहि निहारै, भक्ति करि। ध्या सकल मुनिदं चंद सूर गांवे सवै ।। १५ ।। सहस नेत्र करि रूप निरखें तो पनि त्रिप्त नां। सहस चर्ण करि भूप तो ढिग नांचें सुरपती॥१६॥ सहस हाथ करि नाथ, भाव वतावें इंद्र से। थाह न आवै हाथ, तेरे गुन अंभोधि कौ।। १७॥ सहस जीभ करि देव, देवपती गांवें तुझै। कोई न पावै छेव सेव देहु निज दास कौं। १८ ।। अति ऐश्वर्य स्वरूप तेरी जो ऐश्वर्यता। सो संपति जगभूप, भाषा मैं दौलत्ति कहैं।।१९।। इति ऐकार निरूपणं। आगें ओकार का व्याख्यान कर है।