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अध्यात्म बारहखड़ी
बहुरि असुर तेऊ कहे, सुर्ग विनां जे विंतर भांवन ज्योतिषी,
ए भवनत्रिक
सुर असुरनि के जौनि ही, कहिये
गर्भज नहि तातैं नहीं,
तिनकै
दैत्यांतक तुम देव हाँ, हमरी भ्रांति निवारि हो,
उतपादक राज्या प्रभू, देव मात भी वह सही, देवासुर पदवी प्रभू, चाहँ तेरी भक्ति जो, निहकामा मोहादिक अति राक्षसा, भ्रांति जनित थिर यर कौं पीडै महा, मदमांते प्रभु
हैं
इति
तिनकी मात
भात
सोई
राक्षस
मात ।
और न दूजी बात ॥ ७ ॥
चाहैं नांही
दैत्य मात के सव जीवनि के
ॠ असुरनि की मा कही, असुर मात है भ्रांति हरी दै दौलती,
अविनासी
S
कहें लृकार देव कौंन सो गुर निज गुन उपवन मैं रमैं ता सम और न देव है,
देव ।
भेव ॥ ५ ॥
दास ।
सुखरास ॥ ८ ॥
दुष्ट |
पुष्ट ॥ ९ ॥
—
सुतात ॥ ६॥
ॠ
वर्णनं संपूर्ण । आगें लृ वर्ण का वर्णन करें है ।
लोक
1
लृकाराक्षर कर्त्तारं देवं देवाधिपं परं । पूर्णं पुरातनं शुद्धं, वुद्धं वंदे जगत्प्रियं ॥ १ ॥
प्रभू
वह देव
दोहा
सिधंत मैं देव मात कौ नांम।
कहै,
सुनैं सिक्ष
भ्रांति |
विश्रांति ॥ ११ ॥
शत्रु |
मित्र ॥ १० ॥
अखंड
अभिराम ॥ २ ॥
बिहार ।
अविकार ॥ ३ ॥
५५
न
तात ।
गुरनि बतायौ देव तू, तेरे मात तू अनादि अनिधन प्रभू, सव कौ तात सुमात ॥ ४ ॥