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अध्यात्म बारहखड़ी करें क्रीड भय सिंधु मैं, ताते जीव हु देव। जीव सनातन तू कहै, एहु अनादि अछेव ॥५॥ कहवे के अमरा प्रभू, देव कहांई जेहु। तेऊ गर्भज नां कहे, आँपादिक हैं तेहु ॥ ६ ॥ देव मात सौ कौंन हैं, ताकी इह विचार। गुन देवा कीड़ा. करें, लिड स्वरूप मैं सार॥७॥ गुन जननि तुव भक्ति है, तातै इह सुरमात। अथवा दासा देव हैं, इह पालक विख्यात ।।८।। सुर अक्षर जननी प्रभू, तव वांनी मति रूप। सो श्रुति सुर जननी कही, और न कोई स्वरूप ॥९॥ सो श्रुति पइए भक्ति तें, भक्ति महा विश्राम । देव मात तुव भक्ति है, प्रथम कही अभिराम॥१०॥
__ - छंद मोती दाम – नही तुव भत्ति विना प्रभु और, सुदेवनि की जननी जग मौर। जनैं सुर अक्षर रूप सबै हि, सुराजननी तुव श्रुति फवै हि॥११॥ धेरै अति ज्योति सु तू लखिमीस, न तेरहि कामिनि कंचन धीस। सु तेरिहि भूति त्रिलोकन माय, कहैं निज दास तिसै सुर माय॥१२ ।। रमैं पद पंकज मांहि सदाहि, सुदेव कहांवहि दास महाहि। गर्ने निज मात सु ते तुव भत्ति, तु ही जगदेव अमात सुसत्ति ।। १३ ।। सु देहु प्रभु निज सेव रसाल, न यातहि और कछु सुविसाल। नहीं कछु चाहहि दास कदापि, लखें तुव मूरति नाथ उदापि ॥१४॥
- दोहा - सुर माता तुव भक्ति है, तू है संपति मूल । संपति तेरी परणती, सो दौलति अनुकूल ।। १५ ।। इति लकार संपूर्ण । आग लू का वर्णन कर है।