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अध्यात्म बारहखड़ी
- छंद नाराच . प्रकृत्यभाव दूरगो, तू ही जिनो हरी हरी, प्रभु हिरण्यगर्भ जो, अगर्भ जो परापरी । महा स्वशक्ति पूरणो, पुराण जो रमापती, रमा जु नाम भाम नाहि, शक्तिरूप है छती॥११२॥ प्रभु विसेस है असेस, शक्ति को निवास है, सुचिद्विलास ज्ञान शक्ति, व्यक्तता विकास है। अवांतरो महा सुसत्त्व, तू जु है विधिकरो, शिवंकरो भयंहरो, तमंहरो दिनकरो॥११३॥ रमावरो उमावरो, जपै जु ताहि माधरो, सुधातरो मुधाहरो, कहै सुपंथ पाधरो! सुयोगिना नायको, महामुयोग हायको, . अनायको विनायको, अकायको अमायको ॥११४॥ अनंतभाव ज्ञायको, सवै जु वात लायको, महा विमोहघायको, धरै जु बोध सायको। शिवोभवो धवो सदा, शिवो सही रमा धरो, विभू प्रभू महाप्रभू, स्वभू अभू क्षमा धरो॥ ११५ ।। महा सुदेवदेव देव, है अनंत भेव जो, नरोत्तमो सुरोत्तमो, धुरोत्तमो अछेव जो। तुही तुही तुही सही, न तो समोन्य दूज ही, जहाँ तहाँ लखें सुसाधु, एक तोहि पूज ही॥११६ ॥ अणाधि को जु आथि को, प्रभु नराधिनाथ को, विभूतिनाथ नाथ है, सदा जु सर्व साथ को। परंपरो परापरी, पुरांण पूरणो प्रभू, सही जु तीरथंकरो हितंकरो महाविभू।। ११७।।