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अध्यात्म बारहखड़ी
स्वपरक्षेत्र पालक प्रभू, क्षेत्रपाल प्रतिपाल। क्षेत्र न पीरै कोय कौ, करुणासिंधु विशाल ।।९९॥ क्षेत्राधिप नहि दूसरी, जिन विन जगत मझार। सब क्षेत्रनि मैं सो वसै, लसै आप मैं सार ॥१०० ।। आप अकेलौ सर्वधर, सर्वेश्वर सव रूप। अनेकांत आगम प्रगट, अनुभव रूप अनूप ।।१०१।। और न दूजो देवता, एक देव अतिभेव। केवल भाव प्रभाव जो, परमानंद अछेव ।। १०२ ॥ क्षमाधार क्षम देव जो, निर्मल सलिल स्वभाव । पाप भस्म कर अनल सो, निस्संगी समवाय ।। १०३ ।। प्रभु अलिप्त आकाश सो, सोम समो अति शांत । अर्क समो अति भास जो, अतुल तेज अतिकांत ।। १०४।। यज्य यजन यजमान सो, अष्टमूरती देव। दिगाधीश दिगपाल जो, सुरनर धारहि सेव॥१०५ ।। सो कमलाधर जगप्रभू, वसै सदा मो मांहि । मैं मूरख न्यारो रहौं, मो सम मूरख नाहि ।।१०६ ॥ वाही के परसाद तैं, खोलू मिथ्या ग्रन्थि । तवं वासौं विछुरूं नहीं, ध्याऊँ हूँ निरग्रन्थ ।।१०७ ।। हृदै कमल पधरायकरि, केवलदास कहाय । पूर्जी अहनिसि भावकरि, चिंता सकल विहाय ।। १०८।। रहौं सदा हरि के निकट, तौँ न हरि को संग। जिन रं- रत्ता रहूं, तजिकै द्विविधा संग॥१०९।। नमो नमो वा देव कौं, द्रव्यभाव मन लाय। सत्र ते न्यारौ होय कैं, सेकं वाके पाय॥११०॥ सेवक सेव्य सुभाव इह, साधकता मैं होय । साध्य अवस्था आप ही, और न दूजौ कोय॥१११ ।।