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अध्यात्म बारहखड़ी
तू दुःपरवंस रहस्या, पावै निजदास अवस्था। प्रभु पाशुपता पशुपति कौं, सेवहि पारवती पति कौं ॥ ४८ ॥ पारवती अर पशुपति भी, तोकौं ध्यांवें गणपति भी। पशुपति धारहि तुव सेवा, पशुधन पावै नहि भेवा ॥ ४९ ॥ पशुधन दुरगति कौँ पार्वे, पशुकरमी तोहि न गांवें। पशुकरमी मैथुन कारा, पशुकरम जु मैथुन भारा ।। ५० ॥ पशु हू तुव भजि सदगति कौं, पांवहि प्रभु त्यागि कुमति कौं। पागे मुनि तो महि धीरा, लागे तुव गुन मैं वीरा ॥५१॥ पां% नहि कर्म विपाका, तू धारक शुद्ध रमा का। पाघ न छौंगा कछु वस्त्रा, भूषन एको नहिं शस्त्रा॥५२॥ अदभूत राजा तू जोगी, नहि जोग एका अति भोगी। भोगा नहिं इंद्री विषया, आनंद भोग श्रुति लिखिया॥५३ ।। पाछौं नहि कबहू होइ, तू अन अग्रणी सोई। तू पाटधार जगराजा, अदभुत जोगी भव पाजा ।।५४ ।। पार न पर कर्मनि के, तुव दासा विनु भर्मनि के। नहि पाठ पठंतर कोई, तू अदभुत पाठिक होई।। ५५ ।। नहि पात न कंद न फुल्ना, फल हू न भखें व्रतमूला। सव मैं लखि आतमरामा, निरवैर रहैं गुन धामा ।।५६ ॥ पाथोधि गुननि को तू ही, सुर पादप तू हि प्रभू ही। पादप है वृक्ष जु नामा, पाथोधि समुद्र सुधामा।। ५७ ।। पार्थिव सेवे तुव पावा, पार्थिव कहिये नर रावा। हैं पाक सासनो इंद्रो, तेरौं दासा जु महेंद्रो।। ५८ ।। मुनि पाद मूल तुव सेवै, तोकौं भजि शिवपुर लेवें। मैं महापातकी मृढ़ा, सेये पापी अति रूढ़ा ।। ५९ ।। पांवन हैं तोकौं मेयें, हैं पार भक्ति तुव लेयें। पामर पावै नहि भेदा, अध्यातम तू हि अभेदा ।। ६० ॥