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अध्यात्म बारहखड़ी
इंद्रीजीत अभीत जो, इष्ट सर्वानि को वीर । इष्टानिष्ट न भाव धर, ताहि ध्याय मन धीर ॥ १२ ॥
इष्ट वस्तु दायक प्रभू, इंद्री विषय वितीत जो
इला भूर्ति को न इला इंदिरा को धंनी,
इष्टादिष्ट इलानाथ
नांग इंदिराभूति ।
धेरै अनंत
स्वभाव | भवनाव ॥ १३ ॥
विभूति ॥ १४ ॥
इंद्रीधर को
ताकौ
इंद्री पृथक मुनिंद सो, तारे इंद्र अनंत मन, तू करि इभ तारे इभतार जो, इभ रिपु तारक इन कहिये दिनकर सही, दिनकर धारें
—
नाथ ।
साथ ॥ १५ ॥
इ कहिये जैसें मनां तूं है चंचल तैसी चंचल और नहि, थिर न प्रभू सो इत्वरिका कुटिला त्रिया, तैसी कुमति जु तार्कों तू है मिलनियां, इह तौ भलें न
देव |
सेव ।। १६ ।।
रूप |
भूप ॥ १७ ॥
सोय । होय ॥ १८ ॥
३९
चौंप
रे मन तूं इंद्रिनि कौ नाथ, तजि विषया करि प्रभु को साथ | सर्वस दायक वह वरवीर, निजच्छति पड़ए जातैं धीर ॥ १९ ॥ इतर भाव तैं गम्य न कोई, केवल गम्य वह प्रभु होय । इतरेतर वह सव तैं भिन्न, परिपूरण निज रूप अभिन्न ॥ २० ॥ तास करि मन विनती एह, सुमन करे प्रभु निज मैं लेह । रे मन तू जिन सकि जिन सौं जु उलटि विषै सौं मिलि प्रभु सौं जु ॥ २१ ॥ सुलटि जगत गुर सौं भिलि वीर, कुटिलभाव राखै मति तीर । सरल सुभाव प्रभु गंभीर, तन धन आपौ वारि जु धीर ॥ २२ ॥ इत उत काँ फिरिको नहि भनौ, मेटि कलपनां प्रभू सौं मिलौं । इत्यादिक का तोकौं कहैं, धनि तू जो
ता
प्रभू गहुँ ॥ २३ ॥
रे मन तू मेरी परधान, जो तोतें
भेटौं
भगवांन ।
अनुचर की इह धर्म हि जांन, स्वामि कांम कौं त्याग प्रांन ॥ २४ ॥