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भोक
डकाराक्षर कर्त्तारं भेत्तारं कर्म भूभ्रतां । ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां वंदे लोकाधिपं विभुं ॥ १ ॥
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दोहा
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अध्यात्म बारहखड़ी
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ङ कहिये आगम बिषै, भैरव नांम विख्यात ।
भैरवादि यक्षा सर्वे तेरे दास कहात ॥ २ ॥
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सोय ॥ ३ ॥
तू अशांत काय भाव न भैरव नांम भयंकरा, तू भयहारी भय काँ तू हि भयंकरा, काल हु कौं भय रूप । मोहादिक कौ रिपु तुही, तातैं भैरव रूप ॥ ४ ॥
ङ कहिये सिद्धांत मैं, नांम व्यसन कौ देव । व्यसन जु कहिये कष्ट कौं, कष्ट हरें तुव सेव ॥ ५ ॥
ङ कहिये ग्रंथनि विषै स्वर कौ नांम अनादि ।
सप्त स्वरादिक भेद जे परकासक तू आदि ॥ ६ ॥
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स्वर धरि तोकौं गांव ही, इंद फनिंद नरेस | चंद सूर सुर असुर नर खेचर आदि असेस ॥ ७ ॥
स्वर धरि तेरौ जस कहैं, नारद सकल प्रवीन । रुद्रादिक तोकौं भजैं, भजें चक्रि लवलीन ॥ ८ ॥
अर्द्ध चक्रि तोकौं र, रटें काम देवादि । हलधर तेरौ जस कहैं, गांवें तोहि अनादि ॥ ९ ॥ मनु गांवै मुनि ध्यांवहीं, गांव सव अहमिंद। लौकांतिक गांवें सदा, तू सव पूज्य मुनिंद ॥ १० ॥ स्वर धरि तोहि जु गांवही, तात मात जगदेव । तू सवकौ त्राता प्रभु, दै अपनी निज सेव ॥ ११ ॥