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अध्यात्म बारहखड़ी
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स्वर धरि तोहि न गाइयो, मैं मूरिख मति हीन। तातै रुलियो जगत मैं, अव दै भक्ति प्रवीन ॥१२॥ ङ कहिये फुनि नाध जी, तसकर नाम प्रसिद्ध। तसकर इंद्री मन मदन, हरै ज्ञान अनिरुद्ध ॥१३ ।। इनतै मोहि वचाय तू, तू है राय सुन्याय। वास देहु निज नन कौ, जहां न एक अन्याय ।। १४॥ चोर न तोकौं पांव ही, नहि पाबैं चमचोर। तू सुमनोहर देव है, हरै रोग अर रोर॥ १५ ॥
- सवैया ३१ – भैरव न तू सुदेव, भैरव करै जु सेव,
व्यसन को नाम नांहि तेरी छत्र छाय मैं । स्वर धरि गांवँ तोहि, सुर नर नाग मुनि,
सवै लोक माय रहे तेरे गुन काय मैं। चोर नांहि पार्वं वास, चोरी नांहि वास मांहि,
वासना न तेरै देव, तू न कभी माय मैं। नमो नमो नाथ तोहि, दै जू निज भाव मोहि, और कहा जाचौं ईस आवै नांहि दाय मैं ॥ १६ ।।
- दोहा - डेभ्यांभ्यस असिभ्यांभ्यसो, अर इसिवोस जु आम । डीवोस जु सुप शब्द ए, तूं भासै सव राम ।।१७।। तू अति - व्याकरणी प्रभू, शब्दागम प्रतिभास। शब्दातीत अतीत तू, अति अदभुत अविनास ।। १८ ॥ भैरवता तेरी महा, करै करम को नास । सो चंडी परमेश्वरी, भाषा दौलतिभास ॥१९॥ इति डकार संपूर्ण। आगै चकार का व्याख्यान कर है।