SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म धारहखड़ी यथा प्रभु अंध अधार सुयष्टि, तथा भवि के तुव भक्ति हि इष्टि। न नारक यातन दास लहै हि; न चायना सुहु की सुपारे ।। १६.. चहैं तुव भक्ति न चाहहि भोग, अयाचक रूप गहें निज जोग। न याति न पांति न न्याति निकोय, सवै तजि लोक भजै मुनि होय।।१७।। - दोहा - या कहिये जु विधात कौं, तृ हि विधाता देव। था तेरी परणति सही, चिद्रूपा अतिभेव ॥१८॥ यावत तोहि न पांवहीं, तावत भव भ्रम होय। यावत कहिये जो लगैं, जीवन उधरै सोय।।१९।। याभ्यां कहिये दोयकरि, रुलै जीव संसार। राग दोष दोऊ अरी, जी मुनि अविकार॥ २० ॥ कहै यियासा श्रुति विषै, गमनेछा को नाम। गमनागमन वितीत तू, निश्चल निरमल राम ॥२१॥ यी इह चउथी मात्रिका, तू हि प्रकासै देव । धेरै अव्ययी भाव तू, अक्षय रूप अछेव ॥२२॥ युक्ति प्रकासक वस्तु तू, युगाधार युगधार। युग कहिये है कौं सही, तृ द्वय रूप अपार ॥२३॥ निराकार साकार तू, दरसन ज्ञान अभेव। युगल रूप अतिरूप तु, युगमभाव अतिभेव ।।२४।। तु सामान्य विशेष है, अस्ति नास्ति परकास। नित्यानित्य अनेक तू, एक रूप अतिभास ।। २५ ।। युग युग तेरौ आंसिरौं, नाथ युगादि अनंत । युक्तायुक्त विभेद सहु, तू हि विभासै संत ।। २६ ।। युष्माकं को अर्थ इह, तुम्हरै नांहि विकार। अस्माकं को अर्थ इह, हमकौं करि भवपार ।। २७।।
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy