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अध्यात्म बारहखड़ी
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घर सप्तति जिक्षा अधक; सर चैत्य निवास। दीप तडित अगनी उदधि, मेघ दिसिनि के भास॥ १३ ॥ घट असी तिके अर्द्ध ए, तीयालीसा होय। एती प्रकृति न बंधई, चौथौ ठाण जु सोइ॥१४ ।। षणवती लक्षा प्रभू, तेरे सौध विसाल । पौन कुमारनिकै घरां, स्तनमई अघटाल ॥१५॥ षणवती सहसा त्रिया, नारी तजि चक्रीस। घट्वा (खटवा ) शयन हु त्यागि कैं, है निरग्रंथ मुनीस।।१६।। वनवासी है तुवं ज, भवतन भोग विरक्त। अनुभौ रस पी महा, धर्म शुक्ल अनुरक्त॥१७॥ षपै (ख) चित्त भव भोग कौं, भववासिनिकौ नाथ।
( खपैं) न तातें कर्म अघ, लहँ न तेरौ साथ॥१८॥ घवरि(खवरि ) नहीं निज रूप की, पगे प्रपंचनि माहि। लगे थांम धन मांहि ए, ता. भ्रमण करांहि ॥१९॥ षडसम कर्म समूह हैं, अगनि तुल्य तुव ध्यान। भस्म करै क्षण मांहि सहु, ध्यान समान न आन ॥२०॥
- छंद - घा कहिये लक्षमी को नामा, तू लक्षमी धर देवा। तो विनु लक्षमी नहि औरनिके, दै लक्षमीवर सेवा ।। २१ ।। षांन (खांन) न पान न गांन न ताना, अस्त्र न वस्त्र न तेरे। नादि काल से कबहु न लाधौ, लागी भ्रांति जु मेरै ।। २२ ।। षाड (खाड) समान जगत मैं प्रांनी, पस्यौ नादि तैं मूढा। तृ हि निकासि देय पद ऊरथ, अविनश्वर अति गूढा ॥ २३ ।। हरि करि निज धन पाली (खाली) हाथा, कियो कर्म दुष्टनि नैं। भरमायो चहुंगति मैं अति गति, रागादिक पुष्टनिमैं ॥२४॥