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दोहा
फागुन कातिग अर प्रभू, मास अषाढ हु मांहि । शुक्ल पक्ष त्रय मास मैं वसु दिन वृत्त करांहि ॥ २३ ॥ अष्टमि तैं पून्यौं सुधी, इहें अठाई होय । तू हि प्रकास नाथ जी, सिद्ध गुननि परि सोय ॥ २४ ॥ फिरयों अनंती जौनि मैं तो बिनु दीनदयाल । अब फिरिवाँ सब मेटि तू, दै निज ज्ञान विसाल ॥ २५ ॥ फिरि फिरि बिनऊं नाथजी, भ्रमण न फिरि फिरि होय । सो निजवास दयाल जी, देहु क्रिया करि सोय ॥ २६ ॥
फिसका ओि
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फिल्ल पारयो तैं ही मोह,
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तो सौं लरि सकै नांहि चोरनिको रावही । फिट्ट फिट्ट कीचे तैं हिं राग दोष भाव सव,
दासनि पैं भागि जांहि सकल विभाव ही । फीटी बात तेरे दरबार मैं न दीखे कोऊ,
अध्यात्म बारहखड़ी
फोटी बात कीयें नाथ तू न हाथ आव ही । फुनि फुनि कहाँ मेरी भ्रांति हरि दास करि,
तेरा दास होय सो तुझें तुरंत पाव ही ॥ २७ ॥
दोहा
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फुटकर गुन तेरे नहीं, गुन अनंत इक रूप ।
फूटि फाटि नहि गुननि मैं,
शक्ति अनंत स्वरूप ।। २८ ।।
फूलि धेरै भव भाव मैं मूरिख लोग अयांन ।
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फूलि धेरै तुव भक्ति लहि, ज्ञानवंत गुनवांन ।। २९ ।।
फूल पांच नहि जोग्य है, ब्रह्म व्रतिनि कौ देव । ब्रह्मचर्य के शत्रु ए. त्यागहि दास अभेव ॥ ३० ॥
फूंकि फूंकि पग मुनि धेरै तेरे दास उदासते, भव
धारें दया अछेव । भोगनि तैं देव ॥ ३१ ॥