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________________ अध्यात्म बारहखड़ी स्फार को अरथ विसतीरपा कहैं मुनीस तू ही विसतीरण अनंत रूप पेखिये। गुन है अनंत औं अनंत परजाय तैर, सकति अनंत महिमा अनंत लेखिये ॥१९ ।। जाड्यता अनादि की सुसीतकाल रीति सम भव्यनि के दूरि होय तेरेई प्रसाद तैं। फागुन सौ सम्यक ज् प्रगटै तवै हि नाथ ज्ञानरवि तेज लहै, तेरे स्यादवाद लें। ध्यानानल ताप गहै, विमल स्वभाव लहै, फुले गुन फूला आत छूटें जू विषाद तैं। जीव भंवरी जु सोई सुख मकरंद लेय, स्यामता नसावै नाथ छूटै जु विवाद तैं। २०॥ चारित जो चैत्र सम प्रगटै तवै जु वेगि त्यागि लोक कांनि जब स्वेछता बिहार ही। ऋतुराज सम मुनिराजता प्रगट होय दिन दिन तप को प्रभाव अति धार ही। परमत भाव मास वैसाख जु मिटि करि जेठपन होय अति सुचिभाव सार ही। सांवन समान मनभावन पुनीत भाव, झर लांबैं अमृत की अतुल अपार ही ॥२१॥ भादव समान भद्रभाव सुकलो जु होय सरद समान तव केवल उपाव ही। मीन चौकरी न फेरि उपजै कदपि काल, कालतें वितीत होय जाल मै न आव ही। सिद्धि ऋद्धि वृद्धि औ समृद्धि को भरयो अनंत आप रूप होय करि आप रूप पाव ही। भ्रमण न भ्रम सु कदापि शुद्ध कौं न होय अध्यातम जोग इहै तू ही एक गाव ही।।२२।।
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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