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अध्यात्म बारहखड़ी
बारषड़ी करिये भया, भक्ति प्ररूप अनूप। अध्यातम रस की भरी, घरचा रूप सुरूप ।। १०॥ साधर्मिनि की देसना, लहि करि दौलति राम। अविनासी आनंदमय, गायो आतम राम ॥११॥ वसुवा को वासी इहै, अनुचर जय को जानि। मंत्री जय सुत को सही, जाति महाजन मांन ।। १२ ।। न्याति खंडेल जु वाल है, गोत कासिलीवाल। सुत है आनंदरांम को, जाको इष्ट दयाल ॥ १३॥ गुरू दिगंबर साध हैं, वीतराग हैं देव। दया धर्च नौ आंसिरी, सालिम ४ . अध्यातम रौचीनि को, दासा मन वच काय। भजन कर भगवंत कौ, भगति भाष चित लाय ॥१५ ।। जय को राख्यो रांण पैं, रहै उदैपुर माहि। जगत सिंह किरपा करें, राखें अपुर्ने पांहि ।। १६ ।। छंद भेद जां. नहि, समुझि न ग्रंथनि माहि। अलंकार विज्ञान को, अलंकार हूं नाहि ।। १७॥ कोसनि मैं लेस न धेरै, परिचय काव्य न ज्ञान। शब्द युक्ति परमागमा, ए त्रय धरे न कान ।। १८ ॥ श्रुति सिद्धांत सुनें नहीं, देखे नाहि पुरांन । पेखे नाहि कदापि हू, सिंगारादिक आन॥१९ ।। स्व परन समय लखाव कछु, लौकिक कला न कोय। नहि पाई अनुभव कला, केवल चिनमय सोय ॥२०॥ योगाभ्यास अभ्यास नहि, यम नियमादिक आठ। बूझि न तत्वातत्व की, सूत्र न शास्त्र न पाठ॥२१॥