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अध्यात्म बारहखड़ी
३०१ बुद्धिवल हू औसौ नहीं, नपवल श्रुति वल नांहि। दानादिक को बल्ल नहीं, छल बल नांहि जु पांहि ॥२२॥ केवल अध्यातम धरा, रुचिधर प्रभु के दास । दासनि के दासांनि की, कम रज शुभ मति भास॥ २३ ॥ ताकी भक्ति प्रशाद तैं, पूरन कीनों ग्रंथ। वीतराग प्रभु गाइया, गायो भक्ति सुपंथ ॥ २४ । मंगल रूप अनूप प्रभू, मगल करौ सदैव। चउविधि संगनि कौं महा, तत्व प्रकासक देव ।। २५॥ धर्म प्रवरती घर्द्धतौ, जीव दयामय शुद्ध। विधन टरों संसार को, होहु दशा प्रतिषुद्ध ॥२६ ।।
- छंद - दौलति करौ देहुरा वालौ, निरभय रूप अनूपा । जिनदासनि के दास करौ प्रभु, अजित सुधर्म सुरूपा॥२७ ।। शंभु अदंभ अखंड धरापति, करौ नाथ अविनासी । जादौं पति नियमादि सुनाथा, करौ सय सुखरासी ॥२८॥ जंबू दीप क्षेत्र है भरत जु, आरज खंड निवासा। देस नाम मेवाड 'उदैपुर, रची तहां इह भासा ॥ २९ ।। संवत सत्रह सै अठ्याणव, फागुन मास प्रसिद्धा। शुक्ल पक्ष दुतिया गुरवारा, भायो जगपति सिद्धा ।। ३० ।। जवै उत्तरा भाद्र नक्षत्रा, शुक्ल जोग शुभकारी। वालव नामकरण तव वरतै, गायो ज्ञान विहारी॥३१॥ एक महूरत दिन जव चढियो, मीन लगन तव सिद्धा। भगति माल त्रिभुवन राजा, कौँ भेट करि परसिद्धा ।। ३२॥ अमल अचल अविनासी संपति, दौलति कमला पति तैं। चाहहि ज्ञान चेतना परणति, थिरचर पति अति छति तैं।। ३३॥