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अध्यात्म बारहखड़ी
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जीव अजीब सबै प्रतिभासई तू हि जु और न कोइ अपारी । सुंदर रूप सुसुंदरता धर, तू जगसुंदर संत उधारी ॥१३०॥ संग तजे सहु संचय त्यागि, तजे धन संपति संत महंता। संसय मोह तजे सह विभ्रम, तोहि स्टैं मुनि तत्व लहंता। संगति लोकनिकी तजि साध भर्जे हि अवाध महा विलसंता। संक न चित्त मझार धरै मुनि ध्यान सुधारस रूप चखंता।। १३१ ।।
- कुंलिया छंद - चविधि संघा जाहि कौं, भर्जे सुचित्त लगाय, 2. भोर संचर गिर गुनि को सिलोकी रस्य । सकल त्रिलोकी राय, संधि बंध न कछु जाके,
संधि विभक्ति समास कारका नाहि जु ताकै। सर्व विभास अनास, भासई लिंग जु त्रय विधि,
ध्यावै तत्व स्वरूप जाहि कौं संघा च विधि ।।१३२ ।। क्रियमाणा अर संचिता, प्रारब्धा विनसंत,
संसय छांद्धि तुझैं भ6, आनंदा विकसंत । आनंदा विकसंत, संत ही पावै भेदा,
संघ उधारक तू हि, नाथ है अति निरखेदा। तू संवित्ति स्वरूप, संपदा रूप सुजाणा,
तुम नांमैं विनसंत, संचिता अर क्रियमाणा।। १३३ ।।
- दोहा -
सं कहिये सम्यक सदा, तू सम्यक निज रूप। तेरै संबंध जु नहीं, परपंचान की भूप॥ १३४ ।। संग्या संख्या लक्षणा वहुरि प्रयोजन नाथ । सर्व विभासै शुद्ध त, भेदाभेद सुसाथ।। १३५ ।।