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अध्यात्म बारहखड़ी
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मुनि सुरपति अहिपति भज्यां तू ऊंचौ नहि नाथ। ते ऊंचा हैं तो जप्यां, तू अनंत गुन साथ ।।६१।। नूतन नाहि पुरांन त, नून भाव तोमैंन। नूनं निश्चय रूप तू, द्वय वादी दोमैंन।। ६२ ॥ विपत्ति परवृतिः विधि है. राग. दोष द्ररा नाहि। हरे नूनता जीव की, गुन अनंत तो मांहि ।। ६३ ।। नूपर सम वाचालता, जौ लगि तो न लहंत। तोहि लहयां अनुभव दसा, मौन रूप एकंत ।। ६४॥
- गाथा छंद - नेता नाम नियंता, कह नियंता जु प्रेरको जो है। तू प्रेरक भगवंता, प्रेरै निजभाव निजं माहे ॥६५॥ नेदीयांन जु नीर, तू नीर दूरि नांहिं कवह भी। तू काह हि न पीर, दृरा तृ जीव प्रातिनि सौं।। ६६ ।। नेज तिहारी बांनी, कादै संसार कूथी। जीवा नेम धारि जे प्रांनी, तोहि ज तेहि जम जीते॥६७॥ नेमि नाम है धुर को, धुर धर्मनि की तु ही हि जग धोरी। तू ही गुरू सुरनर कौ, नेमि प्रभू नेम को मूला।। ६८ ॥ नेत्र त्रिलोकी को तू, नैको एको तु ही अनेकांतो। नाथ अल्लोकी को तृ, नैन गिर्ने तोहि मुनिराया।६९॥ नैंन तिहारै ज्ञाना, निरखै लोका अलोक निश्शेषा। नैक स्वभाव प्रधाना, नानाभावा लखै तू ही॥ ७० ॥ नोइंद्री नोचित्ता, नोकर्मा नांहि भाव करमा हु। नोधामा नोबित्ता, अति विना तु हि अति धामा ।। ७१।। नौ कहिये पुरण कौं, पुरण तू ही तू ही प्रभु नौका। भव सागर तारण कौं, तो विनु कोई नही दूजा।।७२||