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नौपाधिक हैं तेरा रूप महा ज्ञान पिंड है तू ही । मलमय पुदगल मेरा, कैसे तोक छुवै स्वांमी ॥ ७३ ॥ नंदन तू नहि काको, नंदन वन को धनी तु ही स्वामी । नंदन नांम जु ताक, जाहि लख्खें होय आनंदा ॥ ७४ ॥ नंदी विरधों स्वामी, निंदा श्रुति दोय तुल्य दास गिर्ने । परनिंदा नहि कांमी, जपहि विरामी प्रभू तोकौं ।। ७५ ।। छप्पय
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नः असमाकं देव देहू तू निज पदभक्ती, नः असमाकं नाथ, नांहि चहिये भव भुक्ति । असमाकं को अर्थ, हम हि तू तारि जिनेसा,
भ्रमण मेटि जगदीस, तिमर हर तू हि दिनेसा । भय भव जु भ्रांति हरि जोगिया, हरि जू अंधता नादि की, दै दिव्य चक्षु जोगीसुर, पर परणति हरि वादि की ॥ ७६ ॥
अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं ।
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सवैया ३१
नमो नमो देव तोहि नाथ सेव देहु मोहि, निपट निरंजन तू, नीरजो, अनंतरा नुति नुति करें साध नूनता हरे अगाध,
नेह त्यागि देह तैं, रटैं मुनि निरंतरा । नैक रूप एक रूप, नोविभावभाव तोमैं,
नौपाधिक नौका प्रभु और नां पदंतरा । भव जल तारक तू, नंदन तिहारे सब नः प्ररूप एक रूप बाहिज अभंतरा ॥ ७७ ॥
दोहा
तेरी नित्य विभूति जो, मा पदमा अनुभूति । सत्ता शक्ति शिवारमा, दौलति संपति भूति ॥ ७८ ॥ इति नकार संपूर्ण ।
अध्यात्म बारहखड़ी
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