________________
११२
अध्यात्म बारहखड़ी
जु चंपा कही औ कहा कंचनाजी, सुरूपा तु ही ना धेरै अंजनाजी। नहीं चंक्रमैं, तोही कोई हि देवा, तु ही है अनंत पवीर्यो अछेवा ।। ९१।।
- दोहा -
.
.
चंद्रायण तप आदि बहु, तप भास तू देव। च; प्रकास जगभास तू, दै स्वामी निज सेव ।। ९२ ॥ चः कहिये प्रभु चंद्रमा, तू चंद्रप्रभु देव । सर्व देव सेवा करें, दै नाथा निज सेव ।। ९३ ।।
अथ बारा मात्रा एक सवैया मैं -
- सवैया - ३१ --- चरन सरोज तेरे चारन मुनी द्विरेफ सेर्दै,
चिनमूरति तू परम प्रकास है। चीर विनु सुंदर जू च्युत व्रत लहैं नाहि, ___अच्युत तू चूरामनि लोक को विकास है। चेतना निधान तू ही चैतनिता भाव तेरौ
तोमई भये सुदास तू हि जिन पास है। तेरे वास माहि नाथ नाहि चोरी चौर साथ
चंदपति देव तू ही चः स्वरूप भास है॥९४ ।।
- दाह] -
तब चंद्र जु की चंद्रिका, सोई कमला लच्छि।
शक्ति भवांनी चंडिका, सो दौलति परतच्छि॥ १५ ॥ इति चकार संपूर्णं । आगै छकार का व्याख्यान कर है।