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अध्यात्म बारहखड़ी
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- श्योक - छल छद्म विनिर्मुक्तं, सच्छास्त्रस्य निरूपकं । सच्छिवास्पद धातारं, सच्छीलनायकं वि ॥ १॥ सच्छुक्ल ध्यान दातारं, अचिच्छून्यं चिदीस्वरं। प्रज्ञाछेत्री विधातारं, स्वच्छ!ध युतैर्नुतं ।।२।। न तच्छोकान्वितै भावै, र्युक्तं शक्ति धरं परं। स्वच्छौं दृग्वोधको भावौ, लभ्येते यदनुग्रहात्।। ३ ।। वंदे तं परमंदेव, छदवंधादि दूरगं। छः प्रकाशं चिदाकाशं सर्वाधारं सदोदयं ॥ ४ ॥
- दोहा - छद्मस्थ न तू देव है, पाबैं नहि छद्मस्थ। तू कैवल्य सुरूप है, प्रभु स्वच्छंद मध्यस्थ ।। ५ ।।
- मालिनी छंद - छलवल नहि कोई, छा तेरै न होई,
अति छतिपति जोई, शुद्ध चैतन्य सोई। अति दलवल रूपा, रागा दोषादि नाही,
छकि जु रहिउ देवा, ज्ञान आनंद माही।।६।। छह जु प्रवल उर्मी, नांहि तेरै जु कोई,
छविधर छविकारी, तू छवीलौ जु होई। छवि जु निरखि तेरी, मात हैं सर्व देवा, छविमय शुभ मूर्ती, नाथ दै मोहि सेवा ॥७॥
- सवैया ३१ – छत्रधारी छत्रधनी छत्रपती पति तू ही,
परम प्रवीन स्वामी थिर चर पति है। छत्र छाय तेरी तलि वसैं सब लोक नाथ
भव जल तारक तू नायक सुजति है।