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अंध्यात्म बारहखड़ी
डांवां जु डल इह चित्त न तोहि ध्यावे,
तोकौं बिसारि भव मैं भ्रम को उपावै । जे होंहि डाभ सम तीक्षण बुद्धि धारा,
ते याहि रोकि तुव भक्ति धेरै अपारा॥१२ ।। डाकैत चित्त सम और न कोई होई,
तेई जु दास मन रोकही धीर होई। तु ही जु सिंधु प्रभु डाबर और देवा,
सोसै न तोहि रवि काल तु ही अछेवा।। १३ ।। डाबा समान इह लोक तु ही जु रत्ना,
तूई करै जु जगजीवन जीव यत्ना। डारे विभाव जडभाव अशुद्ध रूपा, तेई भर्जें सुमन लाय गुण स्वरूपा ।। १४ ।।
- सोरठा - देह सनेह न कोई, तजे डावरा डावरी । तन मन तोमय होय, तेई दास महा सुधी।। १५ ।। डिढता धरि मन मांहि, डिगाडिगी सव त्यागि कैं। तोहि भजै सक नाहि, ते निज दास प्रसिद्ध हैं।। १६ ।। डिगरें नाहि कदापि, तेरी सेवा सौ प्रभू। तन मन तो महि थापि, भजन करें भी जल तिरै ।। १७ ।। डिम डिम वार्ड्स नाथ, तेरै वहु वाजा प्रभू। लागे मुनिजन साथ, तिरै तेहि भव सिंधुतें ।। १८ ॥ डिगरि गये जु विभाव, दासनि सौं लरिवे न सक। तेरौ अतुल प्रभाव, तू डीला अति पुष्ट है॥१९॥ डीठि न लागै तोहि, अति सुंदर अवनीप तू। सब मूठी में होहि, तेरी डीठि सवौं पैरें।। २० ॥