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अध्यात्म बारहखड़ी
डील अनंत स्वभाव, गुन पर्याय जु रावरै । तू अनंत रातः विभाव धेरै
भई डुकरिया नांहि काल अनंत जु वीतिया । नित्य नई घट मांहि बैठी त्रिश्वा हरि प्रभू ॥ २२ ॥ डुलि डुलि चहुं गति मांहि दुखी भयो अति जीव इह । तू तारै सक नांहि भव तारक जगदीस तू ॥ २३ ॥ डूव्यो जीव अनादि, तेरी भगति विना प्रभू । धरे जनम वहु वादि, अव उधारि किरपा करें ॥ २४ ॥
डूंगरपति गिर मेर, सो तो सम निश्चल नहीं । तू मरजादा मेर, पूरण परमानंद डूडूगर अति मोह, जातैं करै प्रभू अति द्रोह,
इह द्रोही
डूडू मैं
तुझ दासनि पैं नाथ, तू अनंतगुण साथ, वीतराग
हारे
नहीं ॥ २१ ॥
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संसार
हास्यो
निरमोह
सुरनरा |
तू ॥ २५ ॥
१४३
कौ ॥ २६ ॥
इहै ।
डूम है रहे देव, तेरे सुर नर कहै विरद अतिभेव, तू अछेव गुनसिंधु डेडर सम हौं ईस, कहा कहि सकौं तुव गुना । तू गुनसिंधु अधीस, जगदीस्वर अवनीस डेढ दिवस को आय, तुच्छ मात्र माया इहै । तामहि भूले राय, जीव न ध्यांवें तोहि डेरा इह तन होय, काचौं जीवनि को तामैं राचे लोय, महाभाग ध्यांवें
तू ॥ २७ ॥
मुनिवरा ।
है ॥ २८ ॥
तू ॥ २९ ॥
जी ॥ ३० ॥
अरिल छंद
डैरू वाजें नाहि भयंकर शब्द नां, वाजे वाजैं अतुल, तुल्यता अब्द नां ।
प्रभू।
तुझें ॥ ३१ ॥