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अध्यात्म बारहखड़ी
दब नहि काहू की हि, दब मेटै त्रिनामई। गम्य न साधू की हि, हम से कैसँ बरनवै ।।२०।। दथ्यौ करमते जीव, उरलौ तू हि कर प्रभू। तीन लोक को पीव, दरै न काहू तौं क्रवै॥२१॥ दडक दडका नाहि, तेरे दासनि कौं विभू । जीते नांही जाहि, अनुचर तेरे मोह पैं॥ २२ ॥ दल फल फूल जु कंद, तेरे दास न आदरें । तू त्रिभुवन कौ चंद, दयापाल परवीन तू ।। २३ ।। दहे करम भव रूप, गहे अनंता गुन प्रभू। दखे तोहि तैं भूप, दोष अनंता दुख मई ।। २४ ।। दही मही वसु जाम, आगे लेवी विधि नहीं। नही दास के काम, दही मही भेला द्विदल ॥ २५॥
- सार्दूल विक्रीडित छंद - दाता दांन जु धर्म भेद सवहीं, भासै तु ही भासको। दासा तोहि भ6 सुचित्त करि के, तू दायको वास को। दारिद्रा न रहैं कदापि निकटा, जाकै जु तोकौं भजे । देवा दानव मानवा मुनिगना, भव्या न तोकौं तजै ।। २६ ।। पीरै नांहि सुदानवा अनिवला, दांसानिकों क्यापिही। तैर द्वादसभाव को इक वही, नाही तु ही आप ही। दासी दास उदास होय तजि जे, तोकौं भर्जे नाथ जी । दांता शांत करे कृतांत न तऊँ, तेरौं प्रभू साश्च जी ।। २७ ।। दातारा नहि कोइ, दात्रि इक तु. देवै महा संपदा । दांना अन्न जु आदि पाप दलना, टारे सर्व आपदा। दाती पात्र सुदान भेद सुविधी, भामै तुही ओर को। दाता भुक्ति विमुक्ति देय इक त, हारी महारोर को॥२८॥