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अध्यात्म बारहखड़ी
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फणी जु काल रूप है इसै न नाथ दास कौं,
फसैं न मोह मैं मुनीस छांडि नाथ पास कौं। फस्यो अनादि काल को मुआतमा फसाव मैं, निकास होइ तोहि तें जु आवई स्वभाव मैं ।। १२ ।।
- छंद त्रिभंगी - फरहरहिं पताका, नाथ रमा का, करम विपाका, तू हि हरै, है अति फलदाता, फलित विख्याता, त्रिभुवन त्राता, वोध करें। कित हू नहि फसियो, अति गुण लसियो, निजगुनवसियो, तू हि प्रभू, फणपति अति गांवें, गुन मन लावें, सुर सिर नार्वे, जगत विभू॥१३॥
. सवैया-३१ . . मोह को फरफराट मेटै तू जगतराट,
पाटधारी तू विराट नायक अनूप है। दायक स्वभाव को सुज्ञायक अनंतभाव,
लायक अनंत नाथ, आनंद सुरूप है। फासि काटि कंठ की अज्ञानता सुरूप जोहि,
डारी मोह चोर नैं हमारै दुखरूप है। जीव को दयाल तू क्रिपाल है विसाल लाल
राखि छत्र छाय मैं तु ही अनुप भूप है।। १४ ।। चुभी जु फांस होयमैं मिथ्यात भाव रूप देव
माया औ निदान बंध रूप जो विरूप है। सम्यक स्वभाव चिमुटा ते कादि फांस नाथ
चैंन देह दास कौं तु ही दयाल रूप है। फारातोरी नांहि तेरै, फारितोरि डारै अघ,
फारिक विभाव से तु ही पियूष कूप है। फाल चूको नादि को फस्यौ जुफासि मांहि मैं ही
तू ही काढि फासि ते क्रिपाल तु अनूप है॥१५॥