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अध्यात्म बारहखड़ी
खिजहि न ऋबहु खिजाये धोरा क्षमा रूप अति शांता । खिलहि फूल ज्योंचिन जिन का, गहहि सुवास प्रशांता ॥ ३७ ॥
छंद भुजंगी प्रयात
खिनायो न जावै बुलायो न आवै, तु ही सर्व रूपो सब मैं रहा । नखीजें न रीझैँ मुनि शांत भावा, तुझी कौं रर्दै त्यागि सर्वे विभाषा ॥ ३८ ॥ जु खीला समाना त्रिशल्या हमारे, चुभी हैं हिये मैं तुही नाथ दारें । खुभी है जिनों के तिहारी सवांनी तिनों के न माया न मिथ्या निदांनी ॥ ३९ ॥ खुसै नांहि दासांनि कौ ज्ञान बित्ता, नही कर्म चौरांनि पैं जांहि जित्ता । खुसी हि रहें नित्य तोकौ हि ध्यांयें, सवै सोक चिंता नसें तोहि गांवें ॥ ४० ॥
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खुलै भ्रांति ग्रंथी तिहारं प्रभावें, लहे तत्त्व विज्ञान भ्रांती अभावें । विषै पंक मैं जीव खूंतौ अनादी, निकासे तुही देव दे ज्ञान आदी ॥ ४१ ॥ न खेस्या ख्रिसै ध्यान तैं धीर चित्ता, जिनों में लख्यौ एक तू शुद्ध वित्ता। सही खेह तुल्याइहें भी विभूती, इहें मोहमाया जु भ्रांति प्रसूती ॥। ४२ ।।
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करें खेद याकै लिये मूढ भावा, जपै नांहि तोकों गर्दै ए विभावा । मुनी चित्त कौं खचि ल्यांवै हि तोमैं, भज्यों नांहि तोकौं लगी भ्रांति मोमैं ।। ४३ ॥
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सांडा
काल महा परवल सदा । पांवैं भव कौ तुन जना ॥ ४४ ॥
सर्व जीव षैकार, पै करि ताकौ पार,
षोडश कारण भाय, सब कारण कौं राय,
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तुव पद पांवें मुनि जना । कारण एक तु ही सदा ।। ४५ ।।
खोट रहे नहि नाथ, सुनिकें तेरी दिव्य ध्वनि । खोटे जीव न साथ, पांवें तेरौ कबहू भी ॥ ४६ ॥
खोले धरे अनंत, छेह न आयौ भवतनौं । भक्ति देहु भगवंत, जा करि भव भरमण मिटें ॥ ४७ ॥