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दोहा
थोथी जग की भूति इह, सो न विभूति कदापि । तेरी सत्ता शक्ति जो, सो दौलत्ति उदापि ॥ ४० ॥
इति थकार संपूर्णं । आगें दकार का व्याख्यान करें है ।
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श्रीक
दयामयं सुदातारं, दिनाधीशेश्वरं विभु । दीनबंधुं जगद्वंधु, दुष्ट कर्म निवारकं ॥ १ ॥
अध्यात्म बारहखड़ी
दूषकं पाप भावानां देह गेहादि वर्जितं । द्वैताद्वैत विनिर्मुक्त, दोष मोहादि दूरगं ॥ २ ॥ दौर्जन्य रहितं शुद्ध, बुद्धं दंड निवारकं । द: प्रकाशं चिदाकासं वंदे देवं सदोदयं ॥ ३ ॥
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सोरठा
दयौ न मोपैं कांम, दले न मैं कोयादि जे । तूहि उधारे राम, सम्यक भाव लखाय कै ॥ ४ ॥
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दर्भ समान कठोर, तीखे रागादिक महा । अति दलबल छल जोर, मोहि भर्माया जगत में ॥ ५ ॥
दल मेरे ज्ञानादि, दले डारि तनु जंत्र मैं । दुख दीयो प्रभु वादि, इनकों मैं न विगारियो ॥ ६ ॥
दझयो लोभ की लाय, शांत भाव पायो नहीं । धरी अनंती काय, राय अबै निज बोध दै ॥ ७ ॥ सिरै ।
द्रव्य प्रकाशक देव, सव द्रव्यनि मैं त्तू दै दयाल निज सेव, दया करो प्रभु दीन परि ॥ ८ ॥
द्रव्य स्व गुण परजाय, भेद अभेद विभासई । तू त्रिभुवन को राय, पाय परें तेरै मुनि ॥ ९ ॥