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अध्यात्म बारहखड़ी
झकझोल जु तेरै नहीं, तू अविवाद स्वरूप। झरहर से तुष ग्राहका, लहै न तेरौ रूप॥६॥
– इन्द्र बज्रा छंद - झषध्वजो नाम सुकाम मपी, करै जु पीरा अति ही सतापी। तु ही जु देवा झषकेतु नासा, सुशील रूपी परम प्रकासा॥७॥ झषा कहांई प्रभु मीन जीवा, वसँ जु स्वामी जल मैं सदीवा । तु ही सवर्षों की करुणा जु धारे, तु ही मुन्यों को भवसिंधु तारे।।८॥ झरे अर्मी नाथ तु ही सुमेधा, तो सौ तु ही देव कहा जु मेघा। लावै झरा तू हि अखंड धारा, त्रिश्ना झला तू हि कर प्रहारा॥९॥ नहीं झलक्कै प्रभू तू कभू ही, भरा जु पूरा गुन का समूही। झल स्वरूपा भ्रम भस्पकारी, निधूम देवा न लघू न भारी॥१०॥ कर हि मूढा झगरा जु झांटा, हिये जु मैला जिय मैं जुआंटा। नहीं जु पार्दै निज भक्ति तेरी, लहैं सु ते लेंहि न भ्रांति नेरी।।११।।
- गाथा छंद ..झगरा तेरे नाही, तू द्वयवादी अनेकवादी है। अति गुण तेरै मांही, सतिवादी स्यादवादी है।। १२ ।। झालरि को झुणकारा, तरै वार्भा अनेक वाजित्रा । झांझि मजीरा सारा, तू राया लोक को मित्रा॥१३॥ झांण सुगम्मा तूं ही, तू ही झायार झांण रूपा। झांणी पांण समूही, असरीरा तू अरूपा है॥१४॥ झाल जु त्रिशा रूपा, तो विनु सांता न होइ काहू से। कर्म जुझार सुरूपा, दूरिदि नासै जु साहू तें॥१५॥ झिगति झिटति ए नामा, शीन तेनें पंडिता जु भार्से ही। वेगि उधारि सुरांमा, तुव भजियां पाप नासै ही।।१६।। हम हि झिकाय मुनिंदा, पाय जु तेरी सु अमृतावांणी। तो तै देव जिनिंदा, झीणी चरचा लखें प्राणी ॥ १७ ॥