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अध्यात्म बारहखड़ी बहु बलभद तारे, अतिबल धारे, बणिक हु तारे, भव जल तैं। तू बिप्र उधारा, क्षत्रिय तारा, जगत उधारा, निजबल तैं। अति बनियां ठनियां, श्रीगुर भनियां, जगगुर गनियां, जग राजा। बलि जाहु तिहारी, गुनबपु भारी, तु भवतारी, भव पाजा ।। १० ।। थिरचर को बर्मा, अतुलित धर्मा, रहित जु कर्मा, अति मर्मी। बत्रांग जु स्वामि, भयहर नामी, मृदुतर धामी, अतिधर्मी। करमनि कौं तौर, अघमद मोरे, अपुर्ने जोरे, अति राजै । बत्मल गुन धारै, भगत उधार, पाप प्रहार, अति छाजै॥११॥ ब्रतधर अति ध्या, गुन गन गावें, मुनि लव लांचें, धरि समता। अतिवृत्त परायन, तू मन भायन, निज सुखदायन, प्रभु रमता। बहु बस्तु जानें, भ्रांति जु भानें, भव्य जु मानें, इक तोकौं। करम जु बटपारा, हरि भवतारा, कार भव पारा, प्रभु मोकौं ॥१२॥
... दोहा - बाद बिबाद न तो विषै, बाह्याभ्यंतर एक । बहिरातम पांवें नहीं, तू एको जु अनेक ।। १३ ।। सब बाहिर सब माहि त, बाल न पांव तोहि। ब्राला रहित अतीत तू, श्रीधर दै शिव मोहि ।।१४।। ते ब्राह्मण जे तुवं भजैं, तोहि त° ते निंद्य । निराबाध जगदीस तू, श्री भगवंत सुबंध ।। १५ ।। बाग सधन तुव गुननि कौं, ता सम और न कुंज। कुंज विहारी देव त, रमैं अतुल गुन पुंज ॥१६॥ बापी सरबर नहि नटिनि, तेरे पुर मैं नाथ । सुख सरवर नरवर तु ही, 'गुन समुद्र अति साथ।। १७ ।। ब्याह बिना नारी सकल, तृ बरजै जगनाथ । व्याहत नारी हू तजें, तब पावै तुव साथ ।।१८ ।। बासी भोजन जे भरखें, ते न लहै तुव भक्ति। भक्त न श्रुति वर्जित गहैं, विषयनि मैं नहि रक्त ।।१९।।