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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ४५-४६, जैनदर्शन
देवदत्त के पतलेपन के अभाव के बिना नहि रहनेवाला पदार्थ रात्रिभोजन मिलता है। अर्थात् पतलेपन के अभाव के साथ रहनेवाले रात्रिभोजन नामका पदार्थ जगत में दृष्टिगोचर होता है । इसलिए अर्थापत्ति से रात्रिभोजन के कारण देवदत्त में पीनत्व (मोटापा) संगत होता है। वैसे सर्वज्ञाभाव के साथ रहनेवाला कोई पदार्थ हो तो, अर्थापत्ति से उस पदार्थ के कारण सर्वज्ञाभाव की संगति (सिद्धि) की जा सके । परंतु सर्वज्ञाभाव के साथ रहनेवाला जगत में कोई पदार्थ दृष्टिगोचर होता नहीं है । इसलिए अर्थापत्ति से भी सर्वज्ञाभाव की सिद्धि नहीं हो सकती ।)
तथा वेद की प्रमाणता वेद के वक्ता सर्वज्ञ होने पर ही संगत होती है । क्योंकि गुणवान (सर्वज्ञ) वक्ता के अभाव में वचनो की प्रमाणता सिद्ध नहीं होती है ।
इस अनुसार से सर्वज्ञतामें कोई भी प्रमाण बाधक नहीं बन सकता है। (तथा सर्वज्ञ की सिद्धि करनेवाले अनेक अनुमान मौजूद होने से ) पांच प्रमाण की अप्रवृत्ति कहकर सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि करनी असिद्ध है।
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उपरांत आपने जो पहले - " जिसमें प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणो की प्रवृत्ति होती नहीं है । वह अभावप्रमाण का विषय बनता है ।" ऐसा नियम कहा था, वह भी अनैकान्तिक (व्यभिचारी) बन जाता है। क्योंकि हिमालय पर्वत का वजन है। पिशाच कितनी ऊँचाई का है और कैसा है ? इन सभी विषय में कोई भी प्रत्यक्ष इत्यादि प्रमाणो की प्रवृत्ति दिखाई नहीं देती है। फिर भी उसका अभाव नहीं है। अर्थात् हिमालय या पिशाचादि का परिमाण अभावप्रमाण का विषय बनकर अभावरुप सिद्ध नहीं हो जाता है इस तरह से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध करने के लिये दिये गये "प्रमाणपंचक की जहाँ अप्रवृत्ति हो वहाँ अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति होती है । " इस नियम का खंडन हुआ जानना । क्योंकि उपर बताये अनुसार वह नियम अनैकान्तिक सिद्ध होता है ।
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योक्तं “सर्वं वस्तुजातं केन प्रमाणेन” इत्यादि, तदप्ययुक्तं, सकलज्ञानावरणविलयोत्थाविकलकेवलालोकेन सकललोकालोकादिवस्तुवेत्तृत्वात्सर्वज्ञस्येति 1 यचोक्तं “अशुच्यादिरसास्वाद” इत्यादि, तदपिE-53 परं प्रत्यसूयामात्रमेव व्यनक्ति, सर्वज्ञस्यातीन्द्रियज्ञानित्वेन करणव्यापारनिरपेक्षत्वात्, जिह्वेन्द्रियव्यापारनिरपेक्षं यथावस्थितं तटस्थतयैव वेदनं, न तु भवद्वत्तद्व्यापारसापेक्षं वेदनमिति । यदप्यवादि “ कालतोऽनाद्यनन्तः संसारः” इत्यादि, तदप्यसम्यक्, युगपत्संवेदनात् । न च तदसंभवि दृष्टत्वात् । तथाहि-यथा स्वभ्यस्तसकलशास्त्रार्थः सामान्येन E-54 युगपत्प्रतिभासते, एवमशेषविशेषकलितोऽपि । चोक्तम्-“यथा सकलशास्त्रार्थः स्वभ्यस्तः प्रतिभासते । मनस्येकक्षणेनैव तथानन्तादिवेदनम् ।।१।।” प्र. वार्तिकालं० - [१२/२२७] इति “अतीतानागत” इत्यादि, तदपि
यच्चोक्तं
(E-53-54 ) तु० पा० प्र० प० ।
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