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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ आश्रय हो उसे द्रव्य कहा जाता है (इस वचन के अनुसार काल द्रव्य कहा जाता हैं ।) इसलिए द्रव्य से वर्तनादि लक्षणवाला, क्षेत्र से सर्व क्षेत्रवर्ती, काल से अनादि अनन्त और भाव से वर्ण आदि रहित अरुपी तथा सूर्यादिक की गति द्वारा स्पष्ट पहचाना जाता और घटादिक कार्य द्वारा जैसे परमाणु का अनुमान होता हैं, वैसे मुहूर्तादि द्वारा समय का भी अनुमान किया जाता हैं, ऐसा कालद्रव्य, पाँच अस्तिकाय से भिन्न माने, यही श्री सर्वज्ञ वचन प्रमाण हैं ।
इस प्रकार व्यवहार काल निश्चय से वर्तमान १ समयरूप और व्यवहार से अनन्त समयरूप हैं । उपरांत, तत्त्वार्थ सूत्र में ५ द्रव्य स्वमत से कहकर छठ्ठा काल द्रव्य अन्य(19) आचार्यो के मतानुसार स्वीकार किया हैं। उपरांत काल के उपचार से द्रव्यत्व यह अस्तिकायत्व के अभाव में जानना(20), उपरांत व्यवहारकाल अजीव जाने और निश्चयकाल पाँचो द्रव्यो की वर्तनारूप होने से जीवाजीव जाने ।
छः द्रव्यो का विशेष विचार : परिणामीत्व, जीवत्व, रूपीत्व, सप्रदेशीत्व, एकत्व, क्षेत्रत्व, क्रियात्व, नित्यत्व, कारणत्व, कर्त्तात्व, सर्वव्यापीत्व और इतर में अप्रवेशीत्व ये सर्व छ: द्रव्यो के बारे में अब सोचेंगे ।(21)
विशेषार्थ : एक क्रिया से अन्य क्रिया में अथवा एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाना उसे परिणाम कहा जाता हैं। इससे विपरित अपरिणाम कहा जाता हैं । वहाँ जीव और पुद्गल का परिणाम १०-१० प्रकार का हैं ।(22)
यहाँ जीव देवादित्व छोडकर मनुष्यादित्व और मनुष्यादित्व छोडकर देवादित्व प्राप्त करता है । इस प्रकार एक अवस्था छोडकर दूसरी अवस्था में जानेरूप जीव के १० परिणाम सोचे, उपरांत पुद्गल के भी १० परिणाम यथासंभव सोचे, इस प्रकार जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं और शेष ४ द्रव्य अपरिणामी हैं । तथा जीव द्रव्य स्वयं जीव हैं, और शेष पांच द्रव्य अजीव हैं । तथा छः द्रव्य में पुद्गल द्रव्य रुपी(23) (अर्थात् वर्ण, रस, गंध, स्पर्शवाला) और शेष पाँच द्रव्य अरुपी हैं ।(24) तथा छः द्रव्य में पाँच द्रव्य सप्रदेशी (अणु के समूहवाले) है और काल द्रव्य अप्रदेशी हैं (अणुओं के पिंडमय नहीं है।) छः द्रव्य में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, ये तीन द्रव्य एक-एक है और शेष तीन द्रव्य अनंत होने से अनेक हैं । छ: द्रव्य में आकाशद्रव्य क्षेत्र है और शेष पाँच द्रव्य क्षेत्री है । यहाँ द्रव्य जिसमें रहा हुआ हो वह क्षेत्र और रहनेवाला द्रव्य क्षेत्री कहा जाता हैं । तथा छ: द्रव्य में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य 19.कालचेत्येके - कोई आचार्य काल को भी द्रव्य कहते हैं । अध्याय ५, सूत्र ३८ 20. सर्वेषां द्रव्याणां वर्तनालक्षणो नवीनजीर्णकरणलक्षण:
काल: पर्यायद्रव्यमिष्यते, तत्कालपर्यायेषु अनादिकालीनद्रव्योपचारमनुसृत्य कालद्रव्यमुच्यते, अत एव पर्यायेण द्रव्यभेदात् तस्य कालद्रव्यस्यानन्त्यम् (द्रव्यानुयोग तर्कणा, अध्याय-१०) इत्यादि अनेक पाठ में उपचारो से द्रव्य सिद्ध किया हैं, परन्तु अस्तिकायरूप वास्तविक द्रव्यत्व नहीं कहा है । 21. परिणामि जीव मुत्तं, सपएसा एग खित्त किरिया च । णिच्चं कारण कत्ता, सव्वगय इयर अप्पवेसे ।।१८।। 22. प्रत्येक परिणाम के उत्तर भेद के नाम तथा स्वरूप श्री पन्नवणाजी सूत्र में से जाने, वह संक्षेप में इस प्रकार से, १० जीव परिणाम : १. गति परिणाम (देवआदि ४) २. इन्द्रियपरिणाम (स्पर्शनादि ५), ३. कषाय परिणाम (क्रोधादि ४), ४. लेश्या परिणाम (कृष्णादि ६), ५. योग परिणाम (मनोयोगादि ३), ६. उपयोग परिणाम (मत्यादि १२), ७. ज्ञान परिणाम (मत्यादि ८), ८. दर्शन परिणाम (चक्षुर्दर्शनादि-४), ९. चारित्र परिणाम (सामायिकादि ७), १०. वेद परिणाम (स्रीवेदादि ३) । १० पुद्गल परिणाम : १. बंध परिणाम (परस्पर संबंध होना वह, २ प्रकार से) २. गति परिणाम (स्थानान्तर होना वह, २ प्रकार से) ३, संस्थान परिणाम (आकार में व्यवस्थित रखना वह ५ प्रकार से) ४. भेद परिणाम (स्कंध से अलग पडना वह, ५ प्रकार से) ५. वर्ण परिणाम (वर्ण उपजना वह, ५ प्रकार से), ६. गंध परिणाम (गंध उपजना वह, २ प्रकार से) ७. रस परिणाम (रस उपजना वह, ५ प्रकार से) ८. स्पर्श परिणाम (स्पर्श उपजना वह ८ प्रकार से) ९. अगुरुलघु परिणाम (गुरुत्व आदि उपजना वह, ४ प्रकार से) १०. शब्द परिणाम (शब्द उपजना वह, २ प्रकार से) 23. वर्ण, गंध, रस और स्पर्श ये चार का सामुदायिक नाम रूप है । इसलिए ये चार जिन में हो वह रूपी 1 24. जीवतत्त्व में जीव रूपी कहा और यहाँ अरुपी में गिना उसका कारण वहाँ देहधारी जीव के १४ भेद की अपेक्षा से रुपी कहा हुआ है और यहाँ जीवद्रव्य के मूल स्वरूप के विषय में अरुपी कहा है ।
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