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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
६३९/१२६२ समाधान-मन में करणता होने के कारण कर्ता का भेद सिद्ध हो जाता है । दिक् और आकाशादि प्रत्यक्ष है, उनके प्रत्यक्ष में भी मन करण है, अतः दिगादिरूप विषय से उसका भेद निश्चित है, इस प्रकार दशम द्रव्य मन सिद्ध हो गया।
श्रोत्रमात्रेन्द्रियग्राह्यः शब्दः शब्दत्वजातिमान् । द्रव्यं सर्वगतो नित्यः कुमारिलमते मतः ।।२९।। वियद्गुणत्वं शब्दस्य केचिदूचुर्मनीषिणः । प्रत्यक्षादिविरोधात् तद्भट्टपादैरुपेक्षितम् ।।३०।। वर्णात्मकानां शब्दानां सम्भूयैकार्थवाचिनाम् । समाहारं पदं प्राहुराचार्यमतकोविदाः ।।३१।। उत्तीर्णवर्णं यत्किञ्चित् तत्त्वं स्फोटपदोदितम् । वर्णव्यङ्गयं पदं प्रोक्तं पतञ्चलिमतानुगैः ।।३२।। अनित्यत्वे हि शब्दानां शशशृङ्गप्रहारवत् । शब्दात्मकानां वेदानां नित्यत्वं हास्यतां व्रजेत् ।।३३।। अति संचिन्त्य वादोऽयं विस्तरेण प्रपञ्चितः । एकादशविधं द्रव्यं तस्मादस्मन्मते स्थितम् ।।३४।। (११) शब्द-शब्द श्रोत्र मात्र-ग्राह्य और शब्दत्व जाति का आश्रय होता है । भाट्ट मत में शब्द को सर्वगत (विभु) और नित्य द्रव्य माना जाता है । शब्द की श्रोत्र-ग्राह्यता में किसी प्रकार का विवाद नहीं । 'शब्दत्व' नाम की जाति का जाति-निर्णय प्रकरण में वर्णन किया जायेगा ।
तार्किकादि शब्द को जो आकाश का गुण मानते हैं, वह प्रत्यक्षादि से विरुद्ध होने के कारण भट्टपाद के द्वारा उपेक्षित कर दिया गया है । गुण सब कहीं किसी-न किसी द्रव्य के आश्रित ही प्रतीत होता है, किन्तु शब्द निराश्रित ही प्रतीत होता है, अतः उसे गुण मानना प्रत्यक्ष-विरुद्ध है । (१) शब्दो द्रव्यम्, साक्षादक्षसम्बन्धसाक्षात्कार्यत्वाद्, घटवत्। (२) शब्दो द्रव्यम्, सत्त्वे सत्यनाश्रयत्वाद्, गगनवत्-इत्यादि अनुमानों के द्वारा भी शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि कर गुणत्व का विरोध किया जाता है । शब्द में अनाश्रितत्व भी असिद्ध नहीं, क्योंकि साश्रयत्वेन उसकी प्रतीति ही नहीं होती । 'विमतं द्रव्यम् (आकाशादि) शब्दाश्रयो न भवति, द्रव्यत्वात्, पटादिवत्'-इस अनुमान के द्वारा भी शब्द में अनाश्रितत्व सिद्ध हो जाता है ।
शङ्का-शब्दो द्रव्यं न भवति, श्रोत्रग्राह्यत्वात्, शब्दत्ववत्' इस अनुमान के द्वारा शब्द में द्रव्यत्वाभाव सिद्ध किया जाता है, अतः इस के विरुद्ध द्रव्यत्व क्योंकर सिद्ध हो सकेगा ?
समाधान-शब्दो गुणो न भवति, श्रोत्रग्राह्यत्वात्, शब्दत्ववत्-इस प्रकार शब्द में उसी द्रव्यत्वाभावसाधक हेतु और दृष्टान्त के आधार पर गुणत्वाभाव भी सिद्ध किया जाता है, अत: प्रमाणान्तर के द्वारा शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि होती है, जिसकी चर्चा ऊपर आ चुकी है । __ 'शब्दो विभुः, स्पर्शानर्हद्रव्यत्वाद्, अनारम्भकत्वे सत्यनवयवद्रव्यत्वाद्, आत्मवत्'-इस अनुमान के द्वारा शब्द में विभुत्व सिद्ध होता है । शब्द में द्रव्यत्व सिद्ध किया जा चुका है, अतः उक्त अनुमान में असिद्धि दोष नहीं । एक ही गकार वर्ण सर्वत्र युगपत् गृहीत होता है, अत: शब्द में महत्त्व या विभुत्व निश्चित है ।
तार्किकगण जो गकारादि की युगपत् उपलब्धि का व्यक्तिभेद से समर्थन करते हैं, अर्थात् देवदत्त के द्वारा श्रुत गकार व्यक्ति से भिन्न दूसरी गकार व्यक्ति यज्ञदत्त को सुनाई देती है, एक ही शब्द सर्वत्र सुनाई नहीं देता । शब्द व्यक्तियों को तार्किक विनाशी मानते हैं । 'स एवायं गकारः'-इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा जाति-निबन्धन हो जाती है, अर्थात जैसे 'तदेवेदमौषधम्'-इसका अर्थ 'तज्जातीयमिदमौषधम्'-ऐसा होता है, वैसे ही 'स एवायं गकारः' का अर्थ 'तज्जातीयोऽयं गकारः'-यही होता है, अतः प्रत्यभिज्ञा के आधार पर शब्द व्यक्तियों का अभेद सिद्ध नहीं किया जा सकता ।
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