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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
मुख्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगत्, योगाचारमते तु सन्ति मतयः तासां विवर्तोऽखिलः । अर्थोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बुद्धयेति सौत्रान्तिकः, प्रत्यक्षं क्षणङ्गुरं च सकलं वैभाषिको भाषते ।।५१।। उनमें पूर्व-पूर्व मत का निराकरण करते हुए उत्तरोत्तर वादी ने अपना मत प्रस्तुत किया है, अतः हमारे लिए केवल वैभाषिक के क्षणिकत्व-पक्ष का ही निराकरण शेष रह जाता है । क्षणिकत्व के विषय में जिज्ञासा होती है कि क्षणिकत्व में प्रत्यक्ष प्रमाण है ? अथवा अनुमान ? बौद्धमत में दो ही प्रमाण माने गए हैं- " द्विविधं सम्यग् ज्ञानम्प्रत्यक्षमनुमानं च” (न्या०बि० १ / २ / ३) । अतः तीसरे प्रमाण की शङ्का ही नहीं हो सकती । प्रत्यक्ष प्रमाण
पर क्षणिकत्व सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'स एवायं घट: ' - इत्यादि प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञा के द्वारा पूर्वोत्तर क्षण-वर्ती घटादि की एकता और स्थिरता ही सिद्ध होती है, क्षणिकता नहीं । 'सेयं दीप ज्वाला के समान उक्त प्रत्यभिज्ञा सादृश्यमूलक एकत्व - भ्रममात्र है' ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि प्रत्येक क्षण में न तो मृद्, दण्ड, चक्रादिघटित समग्र सामग्री हो सकती है और न दीप ज्वाला के समान घट की उत्पत्ति । केवल विज्ञान से घटादि की उत्पत्ति मानने पर मृदादि का संग्रह अनावश्यक हो जाता
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अनुमान प्रमाण के द्वारा क्षणिकत्व की सिद्धि जो की जाती है- 'सर्वे भावाः क्षणिका:, सत्त्वाद्, विज्ञानवत्' । (ज्ञानश्रीने भी कहा है-“यत् सत् तत्क्षणिकं यथा जलधरः, सन्तस्तु भावा इमे" (ज्ञानश्री पृ० १) । वह अनुमान भी दृढतर प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञा प्रमाण से बाधित है, अतः जैसे वह्निगत शैत्य का अनुमान 'वह्निरुष्णः ' - इस प्रत्यक्ष से बाधित अत एव अप्रमाण है, वैसे ही प्रकृत में क्षणिकत्व - साधक अनुमान भी अप्रमाण है । विज्ञानरूप दृष्टान्त भी असिद्ध है, क्योंकि दो तीन क्षण तक ज्ञान को स्थायी माना जाता है । बौद्धों के अनात्मवाद, क्षणिकवाद और शून्यवाद बौद्धों में भी सदैव अव्यावहारिक ही माने गये हैं, अत एव श्री जयन्त भट्ट ने (न्या० मं० पृ० ४६७ पर) उपहास किया है- नास्त्यात्मा फलभोगभागमथ च स्वर्गाय चैत्यार्चनम्, संस्काराः क्षणिका युगस्थितिभृतश्चैते विहाराः कृताः । सर्व शून्यमिदं वसूनि गुरवे देहीति चादिश्यते, बौद्धानां चरितं किमन्यदियती दम्भस्य भूमिः पराः ।।
अद्वैत मत - प्रायः बौद्धोक्त तर्क-प्रणाली को अपना कर ही अद्वैत वेदान्त के आचार्य प्रत्यक्षादि प्रमाण- सिद्ध पदार्थों में मिथ्यात्व सिद्ध किया करते हैं- 'प्रपञ्चो मिथ्या, दृश्यत्वात्, स्वप्नप्रपञ्चवत् । "नेह नानास्ति किंचन" (बृह० उ० ४/४/१९) इत्यादि वेदान्त - वाक्यों को भी मिथ्यात्व का साधक मानते हैं, अतः प्रत्यक्षादि - सिद्ध प्रपञ्च के मिथ्या हो जाने पर “एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म" (छां० ६ / २) इत्यादि वेदान्त - वाक्यों का अपने अद्वैतरूप यथाश्रुत अर्थ में प्रामाण्य ही रहता है ।
अद्वैत मत का निराकरण-अद्वैत वेदान्तितयों द्वारा प्रपञ्च में सिषाधयिषित मिथ्यात्व क्या है ? क्या (१) अत्यन्तासत्त्व है ? अथवा सदसद्विलक्षणत्व ? या बाध्यत्व ? प्रथम (अत्यन्तासत्त्व) पक्ष उचित नहीं, क्योंकि नरशृङ्गादिरूप अत्यन्त असत् पदार्थों की प्रतीति ही नहीं होती किन्तु घटपटादि पदार्थ प्रतीयमान हैं, अतः इन्हें अत्यन्तासत् कदापि नहीं माना जा सकता । सदसद्विलक्षणत्वरूप मिथ्यात्व को साध्य बनाने पर पक्ष में अप्रसिद्धविशेषणत्व दोष आ जाता है, क्योंकि सदसद्विलक्षणत्वरूप साध्य या पक्ष का विशेषण प्रपञ्च में कहीं प्रसिद्ध ही नहीं ।
शङ्का - स्वप्न प्रपञ्च में सदसद्विलक्षणत्व प्रसिद्ध है, क्योंकि नरविषणादि असत् पदार्थ की प्रतीति नहीं होती और आत्मा के समान सत् पदार्थ का बाध नहीं होता, स्वप्न प्रपञ्च का भान भी होता है और बाध भी, अतः वह निश्चितरूप से सदसद्विलक्षण है । प्रपञ्च में सत् और असत् - उभयरूपता का समुच्चय भी नहीं हो सकता, क्योंकि सत्त्व और असत्त्व अत्यन्त विरोधी धर्म है, उनका एकत्र समावेश कभी नहीं होगा ।
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