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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) शङ्का - जाति व्यक्ति से अत्यन्त अभिन्न है ? अथवा भिन्न ? प्रथम पक्ष मानने पर व्यक्ति से भिन्न जाति सिद्ध न हो सकेगी । जाति को व्यक्ति से भिन्न भी नहीं कह सकते, क्योंकि 'गो व्यक्ति ही गोत्व जाति की व्यञ्जिका होती है, अश्व व्यक्ति नहीं' - इस प्रकार का अन्तर समाप्त हो जायगा, क्योंकि जैसे गोत्व जाति से अत्यन्त भिन्न गो व्यक्ति है, वैसे ही अश्व व्यक्ति भी, अतः दोनों व्यक्तियों में गोत्व - व्यञ्जकत्व नहीं रहेगा या दोनों में रहेगा, गो व्यक्ति में गोत्व - व्यञ्जकत्व है, अश्व में नहीं - यह अन्तर तभी बन सकता है, जब कि गोत्व और गौ का अत्यन्त भेद न माना जाय ।
समाधान-भाट्टमतानुसार जाति और जातिमान् का भेदाभेद अर्थात् भेद और अभेद का समुच्चय माना जाता है, अतः भेद और अभेद - दोनों पक्षों में कथित दोष प्रसक्त नहीं होते । पयः पावक के समान अत्यन्त विरुद्ध स्वभाव के भेद और अभेद दोनों का समुच्चय एकत्र क्योंकर होगा ? इस प्रश्न का उत्तर है- 'दर्शनबलात्' । अनुभव के बल पर जाति और व्यक्ति का भेदाभेद माना जाता है । 'अयं गौ: ' - यहाँ इदं शब्द से व्यक्ति और 'गो' शब्द से जाति अभिहित होती है। यहाँ यदि जाति और जातिमान् - दोनों अत्यन्त भिन्न माने जाते हैं, तब 'इदं गोत्वे' - ऐसी प्रतीति होनी चाहिए, क्योंकि अत्यन्त भिन्न घटपटादि में वैसी ही प्रतीति होती है । यदि दोनों अत्यन्त अभिन्न है, तब 'हस्तः करः ' - इत्यादि के समान इदं और 'गोत्व' में पर्यायत्व प्रसक्त होगा और उसका फल यह होगा कि 'अयं गौः ' - इस प्रकार सह प्रयोग न हो सकेगा, किन्तु इदं और 'गो' पद में अपर्यायत्व और सामानाधिकरण्य देखकर भाट्टगण जाति और जातिमान् का भेदाभेद - समुच्चय मानते हैं ।
जाति और जातिमान् में समवाय सम्बन्ध होने के कारण उनके वाचक पदों का सामानाधिकरण्य उपपन्न हो जाता है - ऐसा जो प्रभाकर का मत है, उसका निराकरण समवाय के आगे होनेवाले निराकरण से ही हो जाता है ।
गुरु-मत- इस प्रकार जाति के सिद्ध हो जाने पर भी प्रभाकर गुरु का जो कहना है कि, जाति का अवबोध सदैव पूर्वाकारावमर्श से नियत होता है, जैसा कि शालिकनाथ (प० प० पृ० ६४ पर) कहते हैं- जातिराश्रयतो भिन्ना प्रत्यक्षज्ञानगोचरः । पूर्वाकारावमर्शेन प्रभाकरगुरोर्मता ।। अत एव सत्त्व, शब्दत्व, ब्राह्मणत्वादि को जाति नहीं माना
जा सकता ।
गुरु-मत- निरास - सत्त्वादि में भी पूर्वाकारावमर्श करने के कारण जातित्व मानना चाहिए । यह पूर्वाकारावमर्श क्या है ? क्या पूर्वानुभूत सभी आकारों का अनुसन्धान ? अथवा पूर्वानुभूत कतिपय आकारों का भान ? प्रथम पक्ष मानने पर शाबलेया व्यक्ति को देखकर बाहुलेयी को देखनेवाला व्यक्ति शाबलेयीगत सभी आकारों का बाहुलेयी में अवमर्शन नहीं करता । यदि करे, तब दोनों व्यक्तियों का अत्यन्त अभेद हो जायगा । द्वितीय (एक व्यक्ति के अनुभूत कतिपय आकारों का अनुसन्धान) पक्ष मानने पर सत्त्व, शब्दत्व, ब्राह्मणत्वादि ने क्या बिगाडा है कि पूर्वानुभूत सत्त्वादि आकारों का अनुसन्धान होने पर भी सत्त्वादि को जाति नहीं माना जाता ? फलतः पृथिवी एवं जलादि द्रव्यों में गोत्वादि जातियों में, रूप-रसादि गुणों में, गमनादि कर्मों में, सत्-सत् ऐसा अनुभव और शब्द प्रयोग देखकर द्रव्य, गुण, कर्म और जाति- इन चारों में सत्त्वनामक महासामान्य मानना नितान्त युक्ति संगत है ।
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तार्किकगण जो कहते हैं कि, सामान्य में सामान्यान्तर मानने पर अनवस्था होती है, अतः द्रव्य, गुण और कर्मइन तीनों में ही सत्त्व या सत्ता जाति रहेती है, जाति में नहीं । तार्किकों का वह कहना अयुक्त है, क्योकि यदि हम द्रव्यत्व में द्रव्यत्वान्तर या गोत्व में गोत्वान्तर मानते हैं, तब अवश्य अनवस्था होती है, किन्तु सत्त्व को चारों में मानने पर किसी प्रकार की अनवस्था नहीं होती । दूसरी बात यह भी है कि, सत्-सत् - ऐसा शब्द प्रयोग और ज्ञान जब
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