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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
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की उपपत्ति नहीं हो सकती, जैसा कि वेदान्तदेशिक कहते हैं- "यदि परगतानुभूतिः नानुभूयते, कथं शब्दार्थसम्बन्धः ? परबुद्धिविशेषानुमानेनैव हि सर्वत्र सिद्धे कार्ये वा व्युत्पत्तिः । एवं च व्युत्पत्तेरशक्यत्वात् चेष्टाशब्दयोः प्रमाणकोटिनिक्षेप एव न स्यात् । परस्पराभिप्रायानभिज्ञतया वादिनाः शुष्ककलह एव स्यात् । परस्पराशयपरिज्ञानादेव च सर्वो लौकिको व्यवहारः " (श० दू० पृ० १०३) । श्री उदयनाचार्य भी कहते हैं- “विवादाध्यासितवेदनं वेदनान्तरगोचरः, वेदनत्वात्, पुरुषान्तरवेदनवत् । अवेदने तद्व्यवहारादिविलोपप्रसङ्गः " (किर० पृ० ५३९ ) । प्रत्येक व्यवहार में व्यवहर्त्तव्य का ज्ञान नियमतः अपेक्षित होता है, अतः परकीय ज्ञान का व्यवहार परकीय ज्ञान का ज्ञान न होने पर कथमपि सम्भव नहीं, अत एव शबरस्वामी ने कहा है- " पूर्वं बुद्धिरुत्पद्यते, न तु पूर्वं ज्ञायते भवति हि कदाचिदेतद् यज्ज्ञातोऽप्यर्थः सन्नज्ञात इत्युच्यते । न चार्थव्यपदेशमन्तरेण बुद्धे रूपोपलम्भनम् ” ( शा० भा० पृ० ३४ ) ] ।
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तार्किक मत-तार्किकगण ज्ञान का मानस प्रत्यक्ष मानते हुए कहते है - " ज्ञानं प्रत्यक्षम्, क्षणिकात्मविशेरुगुणत्वात्, सुखादिवत्” (आचार्य प्रशस्तपाद ने कहा है- "बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नास्त्वन्तःकरणग्राह्याः | श्री गङ्गशोपाध्याय भी उसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं-ज्ञानं मानसप्रत्यक्षम्, आत्मविशेषगुणत्वे सति क्षणमात्रस्थायित्वात् सुखवत् (न्या० त० चि० पृ० ८४४) । न्यायलीलावतीकार भी कहते हैं- “ ज्ञायते च मानसप्रत्यक्षात्” (न्या०ली० पृ० ८९१) ।
तार्किक - मत- निरास - ज्ञान की मानस प्रत्यक्षता में जो अनुमान किया गया, वह सुषुप्तिगत प्राण-संचार के निमित्तभूत जीवनयोनि प्रयत्न में व्यभिचरित है, क्योंकि वह अतीन्द्रिय माना जाता है, मानस प्रत्यक्षगम्य नहीं, फिर भी क्षणिकात्मविशेषगुणत्वरूप हेतु उसमें रहता है । ज्ञान की अप्रत्यक्षता में अनुमान प्रमाण भी है - ' विवादास्पदं ज्ञानम्, अप्रत्यक्षम्, ज्ञानत्वात्, परकीयज्ञानवत् ।'
शङ्का-यदि ज्ञान को प्राकट्य (ज्ञातता) के द्वारा अनुमेय माना जाता है, तब ज्ञातता ज्ञात होकर ही ज्ञान की अनुमापिका हो सकेगी, प्राकट्यविषयक ज्ञान भी प्राकट्यान्तर से वेद्य होगा - इस प्रकार अनवस्था होती है ।
समाधान - ऐसी अनवस्था सभी मानते हैं, क्योंकि इससे मूलभूत वस्तु का नाश नहीं होता, जैसा कि कहा गया है-"मूलक्षयकरीं प्राहुरनवस्थां हि दूषणीम् " । (अर्थात् बीज - वृक्षादि स्थल पर भी उत्तरोत्तर वृक्षादि की सृष्टि पूर्व-पूर्व बीज से मानी ही जाती है, इससे मूल बीज का नाश नहीं होता, अतः ऐसी अनवस्था अनादि प्रपञ्च में कोई दोष नहीं मा जाती । उक्त अवस्था से मूल-क्षय क्यों नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि, उत्पन्न ज्ञान की अवश्यवेदनीयता का
यहीं होता । 'अविज्ञात ज्ञान विषय का प्रकाशक नहीं हो सकता'- ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि, अज्ञात प्रकाशक यदि प्रकाश नहीं कर सकता, तब चक्षुरादि इन्द्रियों में भी प्रकाशकत्व न बन सकेगा । क्योंकि, अज्ञात इन्द्रियाँ ही विषय की प्रकाशक होती है । हाँ, जब कभी ज्ञातता और इन्द्रियादि प्रकाशक पदार्थों की जिज्ञासा उत्पन्न होती है, तब अर्थापत्ति के द्वारा उनकी सिद्धि हो ही जाती है ।
बौद्धगण जो विज्ञान को साकार (घटाद्याकारवाला) मानते हैं, उसका निराकरण आगे चल कर किया जायेगा । प्रमाणपरिच्छेद में यह कहा जा चुका है कि, बुद्धि चार प्रकार की होती है - (१) अयथार्थ ज्ञान, (२) स्मरण, (३) अनुवाद और (४) यथार्थ ज्ञान ।
(१६) सुख-सुख तीन प्रकार का होता है - (१) ऐहिक, (२) स्वर्ग और (३) मोक्ष । (१) ऐहिक सुख तो इसी शरीर में स्रक् (पुष्प-हार), चन्दन और वनिता ( कामिनी) आदि उपकरणों से जनित दुःख - मिश्रित होता है । (२) स्वर्ग सुख लोकान्तर-प्राप्य दुःखरहित विशुद्ध सुख को कहते हैं । वह दर्शपूर्णमास, अग्निष्टोम, ज्योतिष्टोम आदि कर्मों के अनुष्ठान
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