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षड्दर्शन समुञ्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
६५५/१२७७ शूद्रादि को श्रौत याग का अनुष्ठान करते देख उसे कोई भी धार्मिक नहीं कहता, अतः नियोग या अधिकार का सदुपयोग ही धार्मिक शब्द की प्रवृत्ति का निमित्त होता है, यागानुष्ठानमात्र नहीं ।
प्राभाकर मत-समीक्षा-आचार्य शालिकनाथ का उक्त कथन युक्त नहीं, क्योंकि यागादि को श्रेयःसाधनत्वरूपेण ही धर्म माना जाता है । अनधिकारी व्यक्ति के द्वारा किया जानेवाला याग श्रेयःसाधन नहीं होता, अतः श्रेयःसाधनत्वेन रूपेण यागादि ही 'धर्म' पद के वाच्य होते हैं । केवल लोक में ही वैसे प्रयोग नहीं होते, अपितु वेद में भी कहा है-“यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माण्यासन" (ले० आ० प्र० ३ अन० १३) अर्थात देवगणों ने जो यज्ञ कर्म किए थे. वे ही धर्म थे। इस वेद-वचन में स्पष्टरूप से 'यज्ञ' शब्द के वाच्यार्थ को ही 'धर्म' शब्द से कहा गया है । 'धर्माणि' शब्द में जो पुंल्लिङ्ग के स्थान पर नपुंसक और बहुवचन का प्रयोग किया गया है, वह छान्दसत्व के कारण ही है । ___यागादि क्रियाओं को ही श्रुति श्रेयःसाधन कहती है, क्योंकि “ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत" -इत्यादि लिङ्, लोट्
और तव्यादि प्रत्ययों से युक्त श्रुति वाक्यों में दो भावनाएँ प्रतीत होती हैं-(१) शब्दभावना और (२) अर्थभावना। उनमें अर्थभावना समस्त आख्यात प्रत्ययों के द्वारा समान रूपेण अभिहित होती है और शब्दभावना केवल लिङ्गादि विधि प्रत्ययों से ही प्रतिपादित होती है, जैसा कि वार्तिककार ने (त०वा०पृ० ३७८ पर) कहा है- अभिधाभावनामाहुरन्यामेव लिङादयः । अर्थात्मभावना त्वन्या सर्वाख्यातेषु गम्यते ।।
इन में अर्थभावना के अभिधान की रीति यह है कि, “यजेत"-यहाँ लिङ् प्रत्यय का अर्थ है-भावयेत् । इस भावना में किम् ? केन ? और कथम् ? तीन आकांक्षाएँ होती हैं । किं भावयेत् ? इस आकांक्षा को अधिकारी पुरुष के विशेषणरूप में श्रुत 'स्वर्ग' पद पूरा करता है-स्वर्गं भावयेत् । केन भावयेत् ? इस द्वितीय आकांक्षा की पूर्ति
होती है-'यागेन स्वर्ग भावयेत' । 'कथं भावयेत'-इस ततीय आकांक्षा को प्रधान याग के अङ्गो का विधान करनेवाले अङ्ग वाक्य पूरा किया करते हैं-'अग्नीनाधाय अन्वाधानप्रयाजादिभिरङ्गानि सम्पाद्य यागेन स्वर्ग भावयेत्' । 'घटं करोति'-इत्यादि वाक्यों से भी 'मृद्दण्डचक्रादिकमुपकरणं कृत्वा कृतिरूपव्यापारेण घटं भावयेत्'-ऐसा अर्थ सम्पन्न होता है, इसी प्रकार सभी आख्यात प्रत्ययों में भावनार्थकत्व पर्यवसित होता है ।
'शाब्दी भावना की पुरुष-प्रवृत्ति वैसे ही भाव्य होती है, जैसे अन्यत्र (आर्थी भावना का) भाव्य स्वर्ग होता है । उस शाब्दी भावना का जो लिङ्गादि के साथ वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध होता है, वह शाब्दी भावना का वैसे ही करण है, जैसे आर्थी भावना का करण यागादि धात्वर्थ होता है । आर्थी भावना में जैसे प्रयाजादि अङ्गोपाङ्गों के प्रतिपादक वाक्य इतिकर्त्तव्य होते हैं, वैसे ही शाब्दी भावना में अर्थवाद वाक्य, क्योंकि अर्थवाद वाक्य कर्म में पुरुष की रुचि उत्पन्न करते हुए लिादि के सहायक माने जाते हैं'-यह शाब्दी भावना का स्वरूप सुचरित मिश्रादि के मतानुसार है, वे 'अभिधाभावनामाहुरन्यामेव लिङ्गादयः' (तं०वा०पृ० ३१८) इस वार्तिक के अनुगामी है ।।
"श्रेयःसाधनता ह्येषां नित्यं वेदात् प्रतीयते" (श्लो० वा० पृ० ४९) इत्यादि वार्तिक का अनुसरण करनेवाले चिदानन्दादि विद्वान् विधि प्रत्यय का अर्थ इष्ट-साधनता ही करते है । जैसा कि (नीति० पृ० २४ पर) कहा है - प्रवृत्तिहेतुः सर्वेषां कर्तव्यत्वैकसंश्रया । इष्टाभ्युपायता सैव लिङ्गाद्यर्थो विधिर्मतः ।। परितोष मिश्र तथा पार्थसारथि मिश्रादि उक्त दोनों मतों का सामञ्जस्य करते हुए ही विध्यर्थ मानते हैं, जैसा कि पार्थसारथि मिश्र ने कहा है-"तस्मात् समीहितसाधनत्वेन भावना विधिना सामान्येन बोधिता" (न्या० र० मा० पृ० ४८)।
वस्तुतः कथित दोनों ही लक्षण समानार्थक है, क्योंकि 'इदमनेन इत्थं कुर्यात्'-यह भावना का समग्र विग्रह है, अतः साध्य और साधन का सम्बन्ध भी विध्यर्थभूत भावना के अन्तर्गत ही आ जाता है । सुचरित मिश्र ने काशिका व्याख्या में
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