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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) है । सेठ के पास पहुँचकर सन्देश वाहक कहता है- “ पुत्रस्ते जातः”, उसे सुनते ही सेठ का मुख-मण्डल खिल उठता है, प्रसन्नता की आभा से व्याप्त हो जाता है, उसे देखते ही बालक को यह समझते देर नहीं लगती कि 'पुत्रोत्पत्तिप्रतिपादकं तद्वाक्यम्' । सामूहिक शक्ति ग्रह हो जाने के पश्चात् 'पुत्रस्ते सुखी' - इत्यादि वाक्यान्तरों को सुनकर आवाप - उद्वापादि की सहायता से प्रत्येक पुत्रादि पद का शक्तिग्रह हो जाता है । श्री चित्सुखाचार्य का संग्रह श्लोक है- दृष्टचैत्रसुतोत्पत्तेस्तत्पदाङ्कितवाससा । वार्ताहारेण यातस्य परिशेषविनिश्चितेः । । ( १/१५)
यदि वहाँ एकमात्र पुत्रोत्पत्ति ही प्रसन्नतापादक नहीं, अपितु स्त्री का सुखपूर्वक प्रसवादि की अनेक सूचनाएँ पाकर भी श्रोता के मुख पर प्रसन्नता दौड सकती है, अतः एक मात्र पुत्रोत्पत्ति में ही 'पुत्रस्ते जातः ' - इस वाक्य का शक्ति ग्रह नहीं हो सकता । तब 'गामानय' - इस प्रकार के प्रवर्तक- वाक्य में भी वाक्य-श्रवण-समनन्तर श्रोता का पहले गमन ही देखा जाता, अतः उसे छोडकर गवानयन में 'गामानय' शब्द का शक्तिग्रह क्योंकर होगा ? क्योंकि कार्य-बोध में प्रवर्तकत्व ही नहीं होता, अपितु कृति-साध्यता और इष्ट- साधन का ज्ञान ही पुरुष का प्रवर्तक माना जाता है । वह आप (प्राभाकर) को भी अभीष्ट नहीं, क्योंकि 'दृष्टोपायताधिया ममेदं कार्यमिति बुद्ध्वा प्रवर्तते' - यह आपने ही कहा है । अतः वाक् इष्टसाधनता का ही प्रतिपादन करता है, कार्यता का नहीं । इष्ट साधनता-ज्ञान से चिकीर्षा उत्पन्न होती है और चिकीर्षा
दूसरा नाम कार्यता-बोध है, अतः इष्ट साधनता के ज्ञान से कार्यबोध उत्पन्न होता है - ऐसा ही मानना न्याय संगत है, क्योंकि "अनन्यलभ्यः शास्त्रार्थः " -इस न्याय के आधार पर जब कार्यावबोध का लाभ इष्ट साधनता-ज्ञान से ही हो जाता है, तब उसमें वाक्य का तात्पर्य नहीं माना जा सकता (स्कन्दपुराण में शास्त्र का विग्रह प्रतिपादित है - ऋग्यजुः सामाथर्वा च भारतं पाञ्चरात्रकम् । मूलरामायणं चैव शास्त्रमित्यभिधीयते ।। यच्चानुकूलमेतस्य तच्छास्त्रं प्रकीर्तितम् । अतोऽन्यः शास्त्रविस्तारो नैव शास्त्र कुवर्त्म तत् ।।
बस इतना ही सच्चा शास्त्र है, इन्हीं में अनधिगतार्थ का प्रतिपादन है, इनसे भिन्न शास्त्र नहीं, अपितु अन्यतः प्राप्त अर्थ के अनुवादक या पिष्टपेषणमात्र हैं । इससे यह स्थिर हो जाता है कि अनन्यलभ्य अर्थ में ही शास्त्र का तात्पर्य होता है, चाहे वह कार्यार्थ हो, या सिद्धार्थ ) ] । दूसरी बात यह भी है कि आप (प्राभाकर) ने जो कार्य का लक्षण किया है- "कृतिसाध्यं कृतिं प्रति प्रधानं कार्यम् " ( प्र० पं० पृ० ४२९) । वह भी स्वर्गादि फल में अतिव्याप्त होने के कारण उपेक्षणीय ही है, अतः लिङ्गादि में अपूर्वाभिधायकत्व उपपन्न न होने के कारण अपूर्व में धर्म शब्द वाच्यत्व सम्भव नहीं।
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यदि अपूर्वादि को धर्म नहीं कह सकते, तब कौन हैं वे धर्म और अधर्म, जिनमें लौकिक जन धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग करते हैं ? इसका उत्तर शबरस्वामीने बहुत पहले ही दे डाला है - "यो हि यागमनुतिष्ठति तं धार्मिकं इति समाचक्षते, यश्च यस्य कर्त्ता, स तेन व्यपदिश्यते" ( शा० भा० पृ० १८) अर्थात् यागादि क्रियायों में ही लौकिक व्यक्ति 'धर्म' शब्द और याग के अनुष्ठाता पुरुष में 'धार्मिक' शब्द का प्रयोग किया करते हैं, इसी प्रकार 'अधर्म' शब्द का प्रयोग हिंसा, सुरापानादि क्रियाओं में करते हैं, अतः ये ही धर्म और अधर्म हैं, जैसा कि वार्तिककारने (श्लो० वा० पृ० १०४ पर) कहा है- अन्यत् साध्यमदृष्ट्वैव योगादीननुतिष्ठताम् । धार्मिकत्वसमाख्यानं तद्योगादिति गम्यते ।।
(यागादि से साध्य पुण्यादि संस्कारों को न देखकर लौकिक व्यक्ति यागादि क्रियाओं के कर्त्ता को धार्मिक कह देते हैं, अतः वह जो क्रिया करता है, उसे ही धर्म समझना चाहिए ।)
प्राभाकर मत-आचार्य शालिकनाथ का कहना है कि, यागादि के अनुष्ठाता पुरुष में जो धार्मिक शब्द का प्रयोग होता है, वह नियोगानुष्ठान के निमित्त से, क्योंकि यागादि के अनुष्ठाता अधिकारी व्यक्ति को ही धार्मिक कहते हैं, अनधिक
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