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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) कहा है - " न हि अनासादितस्वर्गयागादिसाध्यसाधनविशेषसम्बन्धो भावयेत् ।" सभी प्रकार से यह निश्चित हो जाता है कि, यागादि से अतिरिक्त कोई भी श्रेयः साधनीभूत धर्मतत्त्व लोक और वेद में विश्रुत नहीं । जैसे यागादि में श्रेयः साधनता होने के कारण धर्मता मानी जाती है, वैसे ही हिंसादि क्रियाओं में नरक-पातादि की साधनता होने के कारण अधर्मता स्थिर होती है । याग और हिंसादि में साधनादिरूप से द्रव्य, कर्म और गुण का भी निवेश होने के कारण धर्म और अधर्म में अन्तर्भाव माना जाता है, जैसा कि वार्तिककार ने (श्लो० वा० पृ० १०४ पर) कहा है- श्रेयो हि पुरुषप्रीतिः सा द्रव्यगुणकर्मभिः । चोदनालक्षणैः साध्या तस्मात्तेष्वेव धर्मता ।।
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( शबर स्वामीने कहा है- 'तस्मात् चोदनालक्षणः श्रेयस्करः ' । वहाँ पुरुष - प्रीतिरूप श्रेय का साधन होने के कारण द्रव्य, गुण और कर्म सभी धर्म की वाच्य कक्षा में आ जाते है) । जो यह कहा जाता है कि 'अपूर्वं कृत्वा स्वर्गं भावयेत्' । वहाँ अपूर्व को कोई गुणान्तर या पदार्थान्तर नहीं माना जाता, अपितु शक्ति में ही उसका अन्तर्भाव कहा जा चुका है, वार्तिककार (श्लो० वा० पृ० १०७ पर) कहते हैं- तस्मात् फले प्रवृत्तस्य यागादेः शक्तिमात्रकम् । उत्पत्तौ वापि पश्वादेरपूर्वं न ततः पृथक् ।। (स्वर्गादिरूप फल के लिए प्रवृत्त यागादि की शक्ति विशेष अपूर्व होता है उत्पद्यमान पश्चादिरूप फल की यागादिगत सूक्ष्मावस्था को अपूर्व माना जा सकता है, सर्वथा अपूर्व कोई वस्त्वन्तर नहीं) । अतः कथित चौबीस ही गुण सिद्ध होते हैं ।
अविभुद्रव्यमात्रस्थं प्रत्यक्षं चलनात्मकम् । वियोगयोगयोर्मूलं कर्म कर्मविदो विदुः ।। ४६ ।
(४) कर्म-कर्म या क्रिया अविभु द्रव्यों में अवस्थित वह गति- विशेष है, जिससे संयोग और विभाग उत्पन्न होते हैं। वह कर्म पाँच प्रकार का होता है - (१) उत्क्षेपण, (२) अवक्षेपण, (३) आकुञ्चन, (४) प्रसारण और (५) गमन । कर्म चक्षुरादि का विषय होता है ।
प्राभाकरगण जो कर्म को नेत्र इन्द्रिय का विषय नहीं मानते, वह उचित नहीं, क्योंकि कर्म में भी घटादि के समान ही प्रत्यक्षता अनन्यथासिद्धरूप इन्द्रिय के अन्वयव्यतिरेक से सिद्ध होती है, जैसा कि श्री चिदानन्द पण्डित कहते हैं“कर्मणोऽपि प्रत्यक्षत्वमनन्यथासिद्धेन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानात् समर्थनीयम् " ( नीति० पृ० ६८ ) ।
शङ्का-संयोग-विभागरूप गुणों के द्वारा कर्म का अनुमान किया जाता है, साधनीभूत संयोग और विभाग के दर्शन में ही इन्द्रियों का अन्वयव्यतिरेक गतार्थ हो जाता है, अतः वह अन्यथा सिद्ध है, अनन्यथासिद्ध नहीं, जैसा कि भट्ट विष्णु ने अनुमान प्रयोग प्रस्तुत किया है-कर्म परोक्षम्, कर्मत्वाद्, आदित्यकर्मवत् । इन्द्रियों का अन्वयव्यतिरेक संयोगदिरूप लिङ्ग के दर्शन में ही उपक्षीण (चरितार्थ) हो जाता है ।
समाधान-कर्म में अप्रत्यक्षता तभी सिद्ध हो सकती है, जब कि अनन्यथासिद्ध इन्द्रिय के अन्वयव्यतिरेक का अभाव हो, किन्तु उसका अभाव सिद्ध न होने के कारण अप्रत्यक्षत्व सिद्ध नहीं हो सकता, प्रत्यक्षत्व ही स्थिर होता है । संयोग और विभाग ही अन्यथासिद्ध हैं, उनमें अनन्यथासिद्धत्व असिद्ध है ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि संयोग-विभागमात्र को नेत्र का विषय मानकर उनके द्वारा कर्म का अनुमान करने पर श्येन पक्षी के संयोग और विभाग के द्वारा स्थाणु भी कर्म की कल्पना करनी पडेगी, जो कि सर्वथा अयुक्त 1
शङ्का - जब देवदत्त का पूर्व देश के साथ विभाग होकर उत्तर देश के साथ संयोग होता है, तब उन संयोग और विभागों के द्वारा देवदत्त में कर्म का अनुमान होता है, प्रकृत में स्थाणु के विभाग और संयोग भिन्न-भिन्न देशों या वस्तुओं के साथ नहीं हुए, किन्तु एक ही श्येन पक्षी से संयोग और विभाग होते हैं, अतः स्थाणु में कर्म का अनुमान नहीं किया जा सकता ।
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