Book Title: Shaddarshan Samucchaya Part 02
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Sanmarg Prakashak

View full book text
Previous | Next

Page 686
________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम) ६५९/१२८१ समाधान-कथित चार भाव पदार्थों में ही सभी भावों का समावेश हो जाता है, जैसे कि प्रभाकर-कथित शक्ति और संख्या का गुणों में समावेश और निरूपण किया गया है । गोगत गवय का सादृश्य तो कोई पदार्थान्तर ही नहीं, जिसका पृथक् निरूपण अपेक्षित हो, क्योंकि गवयगत जो अधिकतर गुण, अवयव और जाति पदार्थ गौ में रहते हैं, उन्हीं से ही गौ में गवय के सादृश्य की प्रतीति हो जाती है, पृथक् सादृश्य तत्त्व मानने की क्या आवश्यकता ? शङ्का-गवयगत कुछ गुण, अवयव और सामान्य का योग गौ में रह कर सादृश्य-प्रतीति का नियामक नहीं हो सकता, क्योंकि श्री भवनाथ ने कहा है, "न तेषां योगः, असम्बन्धत्वात् । 'तद्वद्'-इति हि तद्धीः, न तु 'तद्'- इति 'सम्बन्ध' इति वा (नयवि. पृ. १४७) । अर्थात् गवयगत कतिपय अवयवों का योग गौ में देखकर 'तत्' या 'सम्बन्ध:'--ऐसी ही प्रतीति होनी चाहिये, 'तत्सदृशोऽयम्'-ऐसी नहीं । समाधान-एक ही पदार्थ विभिन्न रूपों से निरूपित होकर विभिन्न प्रतीतियों का उत्पादक हो जाता है, जैसे एक ही देवदत्त जब 'देवदत्त' संज्ञा से उपलक्षित होता है, तब उसमें 'देवदत्तोऽयम्'-ऐसी प्रतीति होती है और जब वह 'यज्ञदत्तजन्यत्व' धर्म से उपलक्षित होता है, तब उसमें 'यज्ञदत्तपुत्रोऽयम्'-ऐसा भान होने लगता है, वैसे ही जब गवयगत अवयवों को गौ में स्वरूपतः देखा जाता है, तब ‘तदेवायम्'-ऐसी प्रतीति होती है और जब उन्हें गवयस्थत्वेन देखा जाता है, तब वे ही गौमें 'तत्सदृशोऽयम्'-इस प्रकार का व्यवहार उत्पन्न करने लगते हैं । (श्रीचिदानन्द पण्डित भी कहते हैं"गुणावयवसामान्यानामेवैकत्र प्रतीतानामन्यत्र सादृश्यबुद्धिविषयत्वात् । यथा देवदत्तो यज्ञदत्तजन्यत्वेनोपलक्ष्यमाणो यज्ञदत्तपुत्रबुद्धिविषयो भवति, स्वरूपेण तु निरूप्यमाणो देवदत्तबुद्धेरेव । तथा गुणावयवसामान्यानि गवयाश्रिताकारेणोपलक्ष्यमाणानि गवि गवयसादृश्यबुद्धेविषयः, स्वरूपेणैव निरूप्यमाणानि तदित्यनुवृत्तबुद्धेरेव विषयः" (नीति० पृ० १५०)। यदि सादृश्य को तत्त्वान्तर माना जाता है, तब ‘गवयेन गौर्बहुसदृशः, वराहेण पुनरल्पसदृशः' इत्यादि प्रतीतियों की उपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि आप (प्रभाकर) के मतानुसार सादृश्य पदार्थ में अल्पत्व और बहुत्व सम्भव नहीं । सादृश्यगत परिमाण-भेद माना नहीं जा सकता, क्योंकि द्रव्य से भिन्न अन्यत्र कहीं भी परिमाण नहीं रहता । ‘सादृश्य में परिमाण भेद न होने पर भी उसके आश्रयीभूत द्रव्य के परिमाण-भेद को लेकर उक्त प्रतीतियों का निर्वाह हो जायगा'-ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि सादृश्य का एकमात्र गौ आश्रय है, उसमें परिमाण-भेद नहीं हो सकता । हम (भाट्टगण) उक्त प्रतीतियों का सामञ्जस्य भली प्रकार कर सकते हैं, क्योंकि जहाँ गुण, अवयव और सामान्य अल्पसंख्यक हैं, वहाँ अल्प सादृश्य और जहाँ वे बहुसंख्यक हैं, वहाँ सादृश्य-बहुत्व हो जाता है । फलतः द्रव्यादि में ही सादृश्य का अन्तर्भाव समुचित है । विशेष और समवाय का निराकरण- विशेष और समवाय तो शशविषाण के समान ही हैं, क्योंकि उनकी सिद्धि में कोई प्रमाण ही नहीं । शङ्का-विशेष पदार्थ की सिद्धि में अनुमान प्रमाण है-'समानजातीयाः समानगुणकार्याः परमाणवः मुक्तात्मानश्च, परस्परव्यावर्तकधर्मसमवायिनः, द्रव्यत्वाद्, घटवत्' (श्री वरदराज ने अनुमान-प्रयोग किया है-"समानजातीयाः समानगुणकाः परमाणवो मुक्तात्मानश्च परस्परव्यावर्तकधर्मसमवायिनः, द्रव्यत्वाद्, घटवत्" (ता० र० पृ० १६०) यदी अनुमान ऊपर श्री नारायण पण्डित ने उद्धृत किया है, उसमें 'समानगुणकार्याः'-ऐसा पाठ न्यायलीलावती का अनुसरण करते हुए रखा है। जाति और गुणों को लेकर अर्थान्तरता न हो, अत: 'समान जातीयत्व' और 'समानगुणत्व'-ये पक्ष-विशेषण रखे गये हैं। उक्त अनुमान से व्यावर्तक धर्म सिद्ध हो जाने पर मानमनोहरकार के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756