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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम् ) हो जाने के कारण दाहक नहीं रहती । शक्ति को ही यदि 'स्वभाव' शब्द से निर्दिष्ट किया जाता है, तब 'शक्ति' और 'स्वभाव' - दोनों शब्द पर्यायवाची हो जाते हैं । यदि कहा जाय कि शक्ति से दाह नहीं होता, अपितु प्रतिबन्धकाभाव से होता है । तो वैसा नहीं कह सकते, क्योंकि प्रतिबन्धकाभाव एक अभाव पदार्थ है, अभाव पदार्थ किसी भी कार्य का कारक नहीं होता । नित्य कर्मों के अनुष्ठानाभाव से जो प्रत्यवाय देखा जाता है, उसका भी कारण नित्य कर्मों का अभाव नहीं होता, अपितु नित्य कर्मों से नष्ट न होनेवाले दिन-दिन उपचित पाप - राशि ही प्रत्यवाय का कारण होती है, जैसा कि कहा गया है- स्वकाले यदकुर्वंस्तु करोत्यन्यदचेतनः । प्रत्यवायोऽस्य तेनैव नाभावेन स जन्यते ।। (नित्य कर्म अपने नियत समय पर न करके अज्ञानपूर्वक जो पाप किए जाते हैं, उन्हीं से प्रत्यवाय होता है, नित्यकर्माभाव से नहीं) । यदि अभाव किसी कार्य का कारण नहीं होता, तब पुरुषत्व - व्याप्य करादिरूप विशेष दर्शन के अभाव को संशय का कारक क्यों माना जाता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि "विशेषापेक्षो विमर्श: संशयः " (न्या० १/१/२३ ) इस सूत्र में विशेष - दर्शनाभाव को संशय का कारक नहीं, ज्ञापक मात्र माना गया 1 कारक और ज्ञापक में महान् अन्तर होता है, फलतः शक्तितत्त्व पृथक् सिद्ध हो जाता है ।
प्राभाकरगण जो शक्तितत्त्व की पदार्थान्तरता और अनुमान - गम्यता सिद्ध करते हैं, वह युक्त नहीं, क्योंकि गुणरूप से ही शक्ति की कल्पना में लाघव है, गुणों से भी भिन्न मानने पर अत्यन्त गौरव होगा । शक्तिको पृथक् पदार्थ तो भाट्टगण भी मानते हैं, अतः पदार्थान्तरता- स्थापन का निरास करने की आवश्यकता नहीं । हाँ, शक्ति की अनुमानगम्यता का निराकरण अनुमान परीक्षा में कर दिया गया है, क्योंकि वही लिङ्ग अनुमापक माना जाता है, जिसका सहचार - दर्शन प्रत्यक्षतः हो, शक्ति के विषय में वैसा लिङ्ग सम्भव नहीं, अतः अर्थापत्ति के द्वारा ही शक्ति की कल्पना की जा सकती है ।
अर्थापत्ति प्रमाण से शक्ति का ग्रहण कैसे होता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि, जिस प्रकार के अग्नि-संयोग से सदैव दाह कार्य देखा जाता है, प्रतिबन्धक मन्त्रादि का योग हो जाने पर उसी प्रकार के ही अग्नि-संयोग से दाह कार्य नहीं होता, अतः अग्नि-संयोग से अतिरिक्त कोई दृश्य या अदृश्य कारण अवश्य कल्पनीय है किन्तु योग्यानुपलब्धि के द्वारा उस कारणान्तर का अभाव निश्चित है-इस प्रकार दो प्रमाणों के विरोध का परिहार करने के लिए यह व्यवस्था की जाती है कि, दृश्य कारण से अतिरिक्त कोई दाह का अदृश्य कारण अवश्य है, जिसे शक्ति कहा जाता है, उसमें गुणका लक्षण घटने के कारण उसकी गुणों में गणना की जाती है । शक्ति तत्त्व सर्व द्रव्यों में रहने के कारण सामान्य गुण माना जाता है ।
शङ्का-शक्ति केवल द्रव्य में नहीं रहती, गुणादि में भी रहती है, अतः उसे गुण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गुण के आश्रय को द्रव्य कहते हैं और द्रव्याश्रितत्व गुणों में रहता है ।
समाधान- 'गुणाश्रयो द्रव्यम्' - ऐसा द्रव्य का लक्षण हम नहीं मानते, क्योंकि महर्षि कणाद ने स्वयं अपने (वै०सु० १/१/२) सूत्र में 'गुणाः '-ऐसे बहुवचन के प्रयोग से गुणों में बहुत्वादि संख्या की आश्रयता सूचित की है और भाष्यकार प्रशस्तपादाचार्य ने तो अपने भाष्य (प्र० भा० पृ० ३) में स्पष्ट कहा है- “ चतुर्विंशतिर्गुणाः " । संख्या की गणना गुणों में
गई है, अतः गुणाश्रयत्व गुणों में भी जैसे माना गया है, वैसे ही शक्तिरूप गुण के गुणादि में रहने पर भी कोई दोष उपस्थित नहीं होता, हमारा गुण का 'अनुपादानत्वे सति कर्मभिन्नत्वे सति द्रव्याश्रितत्वम्' - यह लक्षण शक्ति में घट जाता है, अतः शक्ति को गुण मानते हैं । इस प्रकार गुण सिद्ध हो गए ।
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